Book Title: Manav Bhojya Mimansa
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: K V Shastra Sangrah Samiti Jalor
View full book text
________________
( ४६७ )
परिविशि । यं पनयं खादनीयं भोजनीयं पटियत्तं तेन भिक्खू संग्रं परिविस'त |
अथ खो भगवा चुन्दं कम्मार पुत्त श्रमंतेसि यं ते चुद | सूकरमद्दवं अवसिद्ध तं सोब्भे निखरणाहि नाहं चुद परसामि सदेव के लोके समारके सब्रह्मके सस्समरण ब्राह्मणिया पजाय सदेव मनुस्साय, यस्स तं परिभुत्तं सम्मा परिणानं गच्छेय्य क्रञ्ञत्र तथागतरसाति ।
एवं मंतति खो चुदो कम्मारपुत्तो भगवतो पटिम्सुत्वा यं हसि सूकरमद्दवं अवसिद्धं तं सोबभे निखणित्वा येन भगवा तेनुपसंकमि उपसंकमित्वा भगवंतं अभिवादेवा एकमतं निसीदि एकमंतं निसीन खो चुद कम्मारपुत्त भगवा धमियाय कथाय सदस्सेत्वा समादवेत्वा समुत्त जेत्वा सम्पहंसेत्वा उट्ठासना पक्कामि अथ खो भगवतो चुदस्स कम्मार पुत्तस्स भत्तं भुत्ताविस्स खरो अवाध उपज्जि लोहित पकखंदिका बाह्रा वेदना वत्तं ति मारणंतिका तत्र सूदं भगवा सतो संपजाना अधिवासमि अविहन्यमाना । अथ खो भगवा आयस्मंतं आनंद आमंत्तोसि आयामानंद | येन कुसिनारा तेनुपसंक मिस्साति । एवं भंतेति खो आयस्मा आनंदो भगवतो पचसोसि |
"उदान" पृ० ८५
अर्थ:- वह चुन्द लोहार उस रात्रि के बीत जाने पर अपने घर में बहुत सा स्वादिष्ट प्रणीत भोजन तथा एक से अधिक व्यक्तियों के योग्य सूकर मद्दत्र तैयार करवा कर बुद्ध के मुकाम पर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558