Book Title: Manav Bhojya Mimansa
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: K V Shastra Sangrah Samiti Jalor

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Page 556
________________ ( ५०५ ) मिलक्खु रजनं रनं, गरहंता. सकं धनं तिथियानं धज केचि, धारे संत्यवदातकं ॥१६॥ अगारवो च कासावे, तदा ते संभविस्सति । पटिसंखाच कासावे, भिक्खूनं न भविस्सति ॥६६६।। अर्थः- “रक्त" यह म्लेच्छों का प्रिय रङ्ग है यह कहते हुए कई अपने काषाय वस्त्र की निन्दा करेंगे और अन्य तीर्थिकों का श्वेतवस्त्र धारण करेंगे। उस समय भिक्षुओं का काषाय वस्त्र पर अनादर होगा और भिक्षुओं को काषाय वर्ण के वस्त्र पर प्रति संख्या ( आदर ) नहीं रहेगा। भिक्खू च भिक्खुनियो च, दुचित्ता अनादरा । तदानीं मेत्तचित्तानं, निग्गरिहस्संति नागते ॥६७४॥ अर्थः-भविष्य में दृष्ठचित्त भिक्षु और भिक्षुणियां अनादर से मैत्र चित्त वाले भिनु भिक्षुणियों का पराभव करेंगे। काषाय वस्त्रधारी भिक्षुओं के प्रति धम्मपदकार के प्रहारअनिकसावो कासावं, यो वत्थं परिदहेस्सति । अपेतो दमसच्चेन, न सो कासाव मरहति ॥१॥पृ०३ कासाव कण्ठा बहवो, पापधम्मा असञ्जता । पापा पापेहि कम्मेहि, निरयं उपज्जिरे ॥२॥ सेय्यो अयो गुलो भुत्तो, तत्तो अग्गिसिखूपमो। यञ्चे भुञ्जय्य दुस्सीलो, रट्ठपिंडं ते असजतो ॥३॥ कुसो यथा दुग्गहितो, हत्थ मेवानुकंतति । Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org

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