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( ४०४ ) अर्थ-ग्रामजनों के समागम स्थान, खल (धान मलने के स्थान ) अनेक मनुष्यों के रहने का स्थान, बड़ा शहर, गोव्रज,
और दुर्जन मनुष्य का मकान इन छः प्रकार के स्थानों में भिक्षु को वर्षा वास की स्थिति नहीं करना चाहिए।
आपजनक स्थान से वर्षाकाल में भी भिक्षु को विहार कर देना चाहिए इस विषय में वृद्ध याज्ञवल्क्य कहते हैं
चौरैरुपद्रुतं देशं, दुर्भिक्षं व्याधि-पीड़ितम् । चक्रान्येन च संक्रान्तं, वर्षास्वप्याशुतं त्यजेत् ।। अर्थ-चोरों के उपद्रव वाले, दुर्भिक्ष वाले, व्याधि पीड़ित शत्र सैन्य से घेरे हुए देश को वर्षाकाल में भी छोड़ दे।
संन्यासी की अहिंसकता जमदग्नि कहते हैंकृकलाशे क्षीरगले, मण्डूके गृह-गोधिके । कुक्कु टादिषु भूतेषु, दशाहं चार्ध भोजनम् । मार्जारे मूषके सर्प, स्थूलमत्स्येषु पक्षिषु । नकुलादिषु भूतेषु, चरेच्चान्द्रायणं व्रतम् ।। पिपीलिकायां सूक्ष्मायां, प्राणायामास्त्रयस्त्रयः।। यूकायां मत्कुणे चैव, मशके पञ्च निर्दिशेत् । मूलांकुरेषु पत्रेषु, पुष्पेषु च फलेषु च ॥ स्थावराणां चोपमेदे, प्राणायामास्त्रयस्त्रयः ॥
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