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( ४४८ ) ( इसका आचार्य उत्तर देते हैं ) तुम्हारे आप्त ने भी लङ्कावतार सूत्र आदि शास्त्र में मांस भक्षण का निषेध किया है इस वास्ते तुम्हारी यह तर्कबाजी निरर्थक है । __ इस प्रकार मांस भक्षण की अतिप्रवृत्ति ने बौद्धधर्म को उच्च वर्णीय भारत वासियों की दृष्टि से गिरा दिया था, परिणाम स्वरूप बौद्ध धर्म के उपदेशक धीरे धीरे निरामिष भारत भूमि से हटकर अनार्य और मांस भक्षक मनुष्यों से आबाद प्रदेशों में पहुँचते जाते थे। इसके विपरीत जैन तथा बैदिक श्रमण और इनके अनुयायी गृहस्थ वर्ग जो पहले दूर तक पहुंचे थे, वे भारत पर बार बार होने वाले विदेशियों के आक्रमणों से तंग आकर भारत के भीतरी भागों में आगये थे।
इस कारण दूर के प्रदेशों में बौद्ध उपदेशक विशेष सफल हो गये।
ईशा की तीसरी शताब्दी तक तक्षशिला और उसके पश्चिमीय प्रदेशों में जैन श्रमण पर्याप्त संख्या में विचरते थे और जैन उपासकों की वसति भी कम नहीं थीं, तक्षशिला उनका केन्द्र स्थान था। तक्षशिला के बाहर जैनों का अति प्राचीन धर्मचक्र नामक तीर्थ था । जो प्रथम ऋषभ देव का स्मारक था, और बाद में जैन तीर्थकर चन्द्रप्रभ की मूर्ति स्थापित होने के कारण चन्द्रप्रभ तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध हुआ था । तक्षशिला नगरी में भी सैकड़ों जैन मन्दिर तथा जिन मूर्तियां स्थापित थीं।
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