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आहारेमि, द्वीहिकं पि आहरं आहारेमि, सत्ताहिकं पि आहारं पाहारेमि । इति एवरूयं अद्धमासिकं पि परियायभत्त भोजनानुयोग मनुयुत्तो विहराभि ।
"मझिमनिकाय" पृ० ३६-३७ अर्थ:-हे सारिपुत्त ! वहां पर इस प्रकार मेरी तपस्या होती थी। लोक लज्जा को छोड़कर हाथ में भोजन करने वाला मैं अचलेक हुआ, न भदन्त ! आयो यह कहने पर जाता, ठहरो यह कहने पर ठहरता, न सामने लाया हुआ भोजन खाता, न किसी का निमन्त्रित आहार लेता, न कुम्भीमुख से (जिसमें पकाया हो उसमें से ) लेता, न कलोपो से अोखली में से लाया हुआ लेता, न देहली अन्दर से, न मुसल के अन्दर से आहार लेता, न भोजन करते हुए दो में से एक के हाथ से, न गर्भिणी के हाथ से, न बच्चे को दूध पिलाती हुई स्त्री के हाथ से, न पुरुष के साथ बड़ी स्त्री के हाथ से, न मेले या यात्रा के निमित तैयार किया हुआ, न कुत्ता खड़ा हो वहां से, न जहां मक्खियां भिनभिनाती हा वहां से आहार लेता था, न मत्स्य, न मांस भोजन लेता, न सुरा, न मैरेय, न तुषोदक आदि मादक पानी पीता । कभी एक घर से भिक्षा लेने का अभिग्रह करता, और वहां से एक कवल जितना आहार लेता, कभी दो घर का, और तीन कवल प्रमाण आहार कभी चार घर का और चार कवल प्रमाण आहार, कभी पांच घर का और पांच कवल प्रमाण आहार, और सात घर का अभिग्रह करता और सात कवल प्रमाण आहार लेता।
१-जितजे वर जाने का अभिग्रह लिया जाता, उतने ही घरों में जा
सकते थे, और प्रत्येक घर से एक एक कवल आहार लेते एक घर
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