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अत्रि कहने हैंया तु पयु पिता भिक्षा, नैवेद्यादिषु कल्पिता । तामभोज्यां विजानीयात्, दाता च नरकं व्रजेत् ।।
अर्थ-नैवेद्य आदि के रूप में परिकल्पित वासी अन्न की भिना ) भिक्षु के लिये अभोज्य समझना चाहिए, तथा उस भिक्षा को देने वाला नरक गामी बनता है। यम कहते हैंयदि पर्युषितं भैक्ष्यमद्याद् भिक्षुः कथश्चन । तदा चान्द्रायणं कुर्यात् यतिः शुद्धयर्थमात्मनः ।। अर्थ-यदि किसी भी कारण से भिक्षु पर्युषित भक्ष्यान्न खाले. लो उसकी पाप शुद्धि के लिये चान्द्रायण व्रत करे। वसिष्ठ स्मृति में कहा गया है
अलाभे न विषादी स्यात् लामे चैव न हषयेत् । प्राणयात्रिकमात्रः स्यानमात्रासंगाद् विनिर्गतः ।।
अर्थ-त्यागी संन्यासी भिक्षा की अप्राप्ति में खेद और प्राप्ति में हर्ष न करे, प्राणयात्रा के प्रमाण में भिक्षा की मात्रा ग्रहण करे।
आपस्तम्ब कहते हैंश्राद्ध-भोजी यतिनित्यमाशु गच्छति शूद्रताम् । तादृशं कल्मषं दृष्ट्वा, सचलो जलमाविशेत् ।। अर्थ-श्राद्धान्न खाने वाला संयासी जल्दी शूद्रपन को प्राप्त होता है, वैसा पाप कार्य देखकर उसे सचल स्नान करना चाहिए।
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