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वे ये हैं-उग्रकुल, भोगकुल, राजन्य कुल, क्षत्रियकुल, इक्ष्वाकुकुल, हरिवशकुल, ऐसिक ( भोज) कुल, वैश्यकुल, गंड (नापित ) कुल, ( सुथार ) कुल, ग्रामरक्ष ( कोतवाल ) कुल शोल्ककोहाग शालिक (आयात निर्यातमाल पर राजकीय नियत कर लेने वाले का) कुल, इसी प्रकार के अन्यान्य अनिन्दनीय अगर्हणीय कुलों में अशन (खाद्य) पान (जल) खादिम-फल मेवादि स्वादिष्ट ( चूर्ण मुखवास श्रादि स्वादिष्टद्रव्य ) जो प्रासुक कल्पनीय मिले उसे ग्रहण करे ।
भिक्षा में अग्राह्य पदार्थ यों तो गृहस्थ लोग अपने लिये अनेक खाद्य पदार्थ तैयार करते हैं, परन्तु वे सभी श्रमणों के लिये ग्राह्य नहीं होते । श्रमण प्रासुक एषणीय और कल्पनीय को ही स्वीकार करते हैं । बहुतेरे. ऐसे खाद्य पदार्थ गृहस्थों के यहां तैयार होते हैं और उन्हें ग्रहण करने के लिये प्रार्थना भी करते हैं परन्तु जैन श्रमण अपने आचार से विरुद्ध किसी चीज का स्वीकार नहीं करते । इस बात के समर्थन में हम नीचे दशवकालिक की कुछ गाथायें उद्धत करते हैं।
कन्दं मूलं पलंबवा, आमं छिन्नं व सन्निरम् । तु बागं सिंगवेरं च, श्रामगं परिबज्जए ॥ ७० ॥ तहेव सत्त चुन्नाई, कोल चुन्नाई आवणे । सक्कुलिं फाणिअं पूध, अन्न वा वि तहाविहं ॥७॥ विकाय माणं पढमं पसदं रऐणं परिफासिअं । दितिनं पडिआइकखे, न मे कप्पड़ तारिसं ॥ ७२ ॥
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