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( ३३१ ) अर्थ-जहां कुश तृण न मिले वहां वास चूर्ण अथवा नाग केशर से प्रमार्जित भूमि में "ककार" वर्ण लिख कर उसके नीचे “तकार' को संयुक्त करना चाहिये ।
जाए दिसाए गामो तत्तो सीसं तु होइ कायब्बं । उतरक्खणट्ठा एस विही से समासेणं ॥ ४२ ॥
अर्थ-शव की परिष्टापन-भूमि से जिस दिशा में ग्राम हो उस दिशा में शव का शिर करना चाहिए और विपरीत दिशा में उसके पग । शव की उत्थान की रक्षा के लिये संक्षेप में यह विधि कही गयी है।
“चिरहट्ठा उवगरणं दोमा उ भवे अचिंध करणंमि । मिच्छत्त सो व राया व कुणइ गामाण वह करणं ॥ ४३ ॥
अर्थ-परिष्ठापित श्रमण शरीर के पास उसके उपकरण मुखवत्रिका, रजो हरण, चोलपट्टक, ये तीन उपकरण स्थापित करने चाहिए। यथाजात उपकरणों के पास में न रखने से अधिक दोषों की आपत्ति हो सकती है। मृतक श्रमण का जीव कलेवर के पास उपकरण न देखकर पूर्व भविक श्रद्धान से पतित हो जाता है । अथवा राजा आदि उसके पास साधु के चिन्हों को
१. "पारिट्ठावरिणया निज्जुत्ति" शक के प्रारम्भकाल की कृति है, उस समय के ककार और तकार को संयुक्त करने से मनुष्य के पुतले को सी आकृति बनती थी।
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