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साथ चलते थे, फिर भी एक दूसरे के साहित्य की चर्चा करने में कोई रस नहीं था ।
सांख्यदर्शन के प्रवर्त्तक कपिल महर्षि स्वयं संन्यासी थे. और उन्होंने एक महत्त्वपूर्ण दर्शन का आविर्भाव किया था, जो तमान सभी दर्शनों में अति प्राचीन माना जाता है । कणाद, गौतम, जमिनि, आदि भिन्न भिन्न दर्शनों के मुकाबिले में ये दर्शन अर्वाचीन कहे जा सकते हैं।
जैनागम कल्पसूत्र में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद तथा इनके षडङ्ग और इतिहास इन सभी को ब्राह्मणों का साहित्य माना गया है, इन्हें ब्राह्मण-साहित्य कहा गया है तब पष्टितन्त्र आदि पारिव्राजक नय के ग्रन्थ माने गये हैं । इससे सिद्ध होता है कि अति पूर्वकाल से ही ब्राह्मण तथा संन्यासी साहित्य की दो धारायें पृथक रूप से बह रही थी । न ब्राह्मण साहित्य में संन्यासियों की चर्चा होती थी न संन्यासियों के साहित्य में ब्राह्मणों की। ब्राह्मण लोग विचार पूर्वक अपने साहित्य में सन्यासियों की चर्चा नहीं करते थे, क्योंकि संन्यासियों की भलाई अथवा बुराई करने से उन्हें अपनी हानि का भय रहता था। संन्यासियों की तरफ झुकने से वे अपना महत्त्व घटने की आशङ्का करते थे । तब संन्यासियों के विरुद्ध कुछ भी लिखने पर त्याग मार्ग के उपासक उन पर नाराज होकर हानि पहुचा सकते थे। इस कारण से अपने ग्रन्थों में संन्यासियों के विषय में कुछ भी न लिखने के लिये वर्ग मनर्क रहता था ।
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