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यति और भिक्षावृत्ति से जीवन निर्वाह करने याला होने से भिक्षु ये सभी संन्यासी के पर्याय वाचक नाम हैं।
संन्यास मार्ग का स्वीकार कब करना इस विषय का स्पष्टीकरण करते हुए याज्ञवल्क्य जाबालोपनिषद् में नीचे लिखे अनुमार लिखते हैं। ____ “अथ हैन जनको वैदेहो याज्ञवल्क्यमुपसमेत्योवाच भगवन् ! संन्यासं त्र हीति । स होवाच याज्ञवल्क्यः । ब्रह्मचर्य परिसमाप्य गृही भवेत् । वनी भूत्वा प्रव्रजेत् । यदि वेतरथा ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेत् गृहाद् वा वनाद्वा । अथ पुनरवती वा व्रती वा स्नातको वाऽस्नातको बोत्सनाग्निको वा यहरे व विरजेत् तदहरे व प्रव्रजेत्।"
अर्थः-जनक वैदेह ने याज्ञवल्क्य से पूछा हे भगवन् ! संन्यास को कहिये । इस पर याज्ञवल्क्य बोले-ब्रह्मचर्य आश्रम समाप्त करके गृहस्थ से वानप्रस्थ बन कर, फिर संन्यासी बने अथथा इस क्रम के बिना भी ब्रह्मचर्य आश्रम से ही सन्यासी बन सकता है । अथवा गृहस्थ आश्रम से वा बन से प्रव्रजित हो सकता है। अथवा ब्रतवान् हो, अथवा अवती, स्नातक हो, अथवा अस्नातक, आहिताग्निक हो अथवा अनाहिताग्निक, जिस दिन संसार से विरक्त हो उसी दिन प्रवजित हो सकता है।
याज्ञवल्क्य उपनिषद् में भी याज्ञवल्क्य ने उक्त अभिप्राय से मिलता जुलता ही अभिप्राय व्यक्त किया है, जो नीचे लिखे अनुसार है।
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