________________
( २५६ )
बहुट्टियं पुण्गवं प्रणिमिसं वा बहु कंटयं । च्छ्रियं तिंदुयं विल्ल उच्छु खंडव सिंबलिं ॥ ७३ ॥ पेसिया भोज्जाए, बड्ड उज्भुय धम्मियं । दिति पडिश्राकुखे, न मे कप्पड़ तारिसं ॥ ७४ ॥ “दश० पिण्डे० ५० १७५ १०० प्रमोदेश”
अर्थः- काटा हुआ सचित्त कन्द, मूल, फल और पत्र शाकतुम्बाक, छिलका तथा मज्जा के भीतर का सचित्त गूदा और सचित्त अदरख इन सबको वर्जित करें । इसी प्रकार सक्त का चूर्ण, बेर का चूर्ण, शष्कुली ( रसभरी पूड़ी ) राब, अनूप, अथवा उस प्रकार का कोई भी अन्न जो हाथ में लेने से विखरता हो, शिथिल बन गया हो तथा धूल से मिला हुआ खाद्य इस प्रकार के भोज्य पदार्थों को देती हुई गृह स्वामिनी को श्रम कहे कि, इस प्रकार का भोजन मुझे नहीं कल्पता । प्रचुर बीज-गुठली वाला फल मेवा का गूदा अनेक कांटो से भरा वेसन का मत्स्य, अस्थिक तिन्दुक, बिल्व आदि फल, गन्ने का खण्ड और अप्रासुक कच्ची फलियां और ऐसा पदार्थ जिस में भोजन का अंश कम और फेंक देने का कचरा बहुत हो तथा जो पदार्थ फेंक देने योग्य हो उसे देती हुई गृहस्वामिनी को साधु कहे, इस प्रकार का भोजन मुझे नहीं चाहिए ।
तत्थ से भुजमाणस्स, अट्टियं कंटओसिया । तण कट्ट सकरं वा वि अन्नं वा वि तहा विहं ॥ ८४ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org