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( २६८ ) समणा ! तुमं चेवेयं पाणगजायं पडिग्गहेण वा उस्सि चियाणं उवत्तियाणं गिहाहि, तहप्पगारं पाण गजायं सयं बा गिरिहज्जा परो वा से दिज्जा, फासुयं लाभे संते पडिगाहिज्जा ( सूत्र ४१ )
. (आचाराङ्ग श्रुत स्कन्धे २ पृ. ३४६) अर्थ-वह भिक्षु अथवा भिक्षुणी पानी के इन भेदों को जाने, वह इस प्रकार तिलोदक (तिलों का सन्धान जल) तुषोदकर (तुषों का सन्धान जल ) यवोदक ( यवों का सन्धान जल )
आयाम ( अव स्रावण जल ) सौवीर ( कच्च यव तथा गेहूँ के सन्धान से बनाया गया जल) शुद्ध गरम जल, इस प्रकार का अथवा अन्य प्रकार का सन्धान जल देखकर दायक को कहे, आयुष्मन् ! अथवा बहिन । इनमें से अमुक प्रकार का पानी हमें दोगे ? इस प्रकार कहते हुए श्रमण को यह उत्तर दे कि हे आयुष्मन् श्रमण ! तुम खुद ही अपने पात्र द्वारा इस जल की उलीच कर भर लो, इस पर श्रमण स्वयं उस प्रकार के जल को अपने पात्र में ले अथवा अन्य गृहस्थ द्वारा ग्रहण करे, प्रासुक मिलता हो तब तक उसी को ग्रहण करे । टिप्पणी-१. २. ३.
सौवीरकं सुवीराम्लं, यवोत्थं गोधूम सम्भवम् ।
यवाम्लजं तुषोत्थं च, तुषोदकञ्चापि कीर्तितम् ।। अर्थ-सौवीर अथवा सुवीराम्ल यवों के अथवा गेहूंषों के सन्धान से बनाया जाता है, और यवोदक तथा तुषोदक क्रमशः यवों के और उनके छोकर के सन्धान से बनाया जाता है ।
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