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( २७५ ) 'पायरिए उब्जा उबज्झाए, पवित्ति थेरे गणी गणधरेय । पण बच्छेइय णीसा, पवित्तिणी तत्थ प्राणेति ॥४१७७॥
“वृहत्कल्प स० पृ० ११३५ अर्थः-आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्ती स्थविर, गणी, और गणधर । कुल स्थविर ) गणावच्छेदक और प्रतिनी। १-प्राचार्य
गण स्थविर जिनके अनुशासन में सारा गण रहता था वे आचार्य कहलाते थे। विद्यार्थी साधुओं को प्राचार्य सूत्रों का अनुयोग (सूत्रों का अर्थ ) देते और किसी भी दर्शन के विद्वान् अथवा अन्य किसी महत्त्वपूर्ण कार्यों के सम्बन्ध में कोई भी पूछने वाला आता तो उनसे बात चीत करते, गच्छ के आन्तरिक कार्यों में आचार्य प्रायः हस्तक्षेप नहीं करते थे।
२-उपाध्याय
उपाध्याय का मुख्य कर्त्तव्य साधुओं को सूत्र पढ़ाना था; इसके अतिरिक्त वे आचार्य के प्रत्येक कार्य में सहायक होते थे। इनका दर्जा युवराज जैसा माना गया है।
३-प्रवर्ती अथवा प्रवर्तक
प्रवर्ती का कर्तव्य गण के साधुओं को उनके योग्य कामों में नियुक्त करना, और उनके कार्यों की देख भाल रखना होता था । प्रवर्तक का दर्जा गृह-मन्त्री का सा माना गया है।
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