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अर्थ-वर्षावास की स्थिरता किये हुए निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थिनियां जिनके मन प्रसन्न हैं, शरीर तन्दुरुस्त तथा बलिष्ठ हैं, उनको ये नव रस विकृतियां बार बार खाना नहीं कल्पता । जैसे-दूध, दही, मक्खन, घी, तेल, गुड, मधु, मद्य, मांस ।
साधु अपने आज्ञाकारक के आज्ञा के विना विकृति-भोजन नहीं कर सकता। __ वासावासं पज्जोस विये भिक्खू इच्छिज्जा अण्णयरिं विगई अाहारित्तए नो से कप्पइ से अणा पुच्छित्ता आयरियं वा उवज्झायं वा थेरं पवित्तिं गणिं गणहरं गणावच्छेययं वां अण्णं वा जंपुरो कट्ट, विहरइ कापइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा उवज्झायं वाथेरं पवित्तिं गणि गणहरं गणावच्छेयं वा जवा पुरओ का विहरइ आहारित्तए इच्छामिणं भंते। तुम्भेहिं अब्भरगुण्णाए समाणे अनयरिं विगई आहारित्त तं एव इय वा एव इक्खुत्तो तेय से वियरिजा एवं से कप्पइ अण्णयरि विगइ आहारित्तए तेय से ना वियरिजा एवं सेनो कप्पइ अण्णयरिं विगइ आहारित्तए से किमाहु भंते ! आयरिया पञ्चवायं जाणंति ।
— (कल्प सूत्र पृ०७८) अर्थ-वर्षावास स्थित भिक्षु किसी विकृति विशेष को भोजना के साथ लेना चाहे तो वह आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, प्रवर्तक गणी, गणधर, गणावच्छेदक, अथवा जिसको वह अपना नायक बना कर विचरता है, उसको पूछे बिना विकृति नहीं खा सकत, पहले वह अपने नेता की इस प्रकार आज्ञा ले-हे भगवान् ।
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