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( १८० ) अर्थ-सौवीरिणी से अमुक प्रमाण में सौवीराम्ल छान कर जुदा लेना इसका नाम उत्सिञ्चन है, उत्सिञ्चन, श्रमण के लिये १, घर श्रमण के लिये २, घर अन्य दर्शनियों के लिये ३, घर जो आये उन सब के लिये ४, और केवल अपने लिये ५, इस प्रकार उत्सिञ्चन पांच प्रकार से होता है, छठा कोई भी विकल्प नहीं है कि जिसके लिये उत्सिञ्चन किया जाय । इन पांच प्रकार के उत्सिश्वनों में से केवल अपने लिये किये गये उत्सिञ्चन में से जैन श्रमण सौवीर जल ले सकता है। अन्य उत्सिञ्चनों में से नहीं।
पिट्टण सुहा होती सौबीरं पिट्ठवज्जियं जाणे । टीका -ब्रीह्यादिसम्बन्धिना पिष्टन यद् विकटं भवति । सा सुरा, यत्तु पिष्टवर्जितं द्राक्षाखजूरादिद्रव्यनिष्पद्यते तन्मद्यं सौवीर विकटं जानीयात् । ____ अर्थ-चावल आदि के पिष्ट के सन्धान से जो मादक पानी बनता है उसको सुरा कहते है और द्राक्षा खजूर आदि का संधान कर जो मादक जल बनाया जाता है उसका नाम सौवीर विकट है
ऊपर सुरा और सौवीर विकट के जो लक्षण बताये गये हैं। वे दोनों श्रमणों के लिये अभक्ष्य हैं और सौवीर जल के भ्रम से सौवीर विकट को लेने वाले श्रमण को प्रायश्चित्त लेने का विधान किया गया है । सामान्य सौवीर जल यव तथा गेहूँ के सन्धान से बनाया जाता था उसमें मादकता नहीं, किन्तु अत्यल्प मात्रा में अम्लता उत्पन्न अवश्य होती थी । इस प्रकार का सौवीर
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