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विहरन्ति नो श्रामिस दायादाति । अहंपि तेन न आदित्सा भवेय्यं धम्मदायादा सत्थु सावका विहरन्ति नो आमिस दायादाति तस्मातिह में भिक्खवे धम्मदायादा भवथ मा आमिसदायादा अस्थि मे तुम्हेसु अनुकम्मा किति में सावका धम्मदाया भवेय्यं नो आमि सदायादाति । “धम्मदायाद सुत्त" पृ० =
अर्थ:-हे भिक्षुओ ! तुम मेरे धर्म के दायाद ( हिस्सेदार) बनो आमिष भोजन के दायाद न बनो, हे भिक्षुओ मेरी तुम्हारे ऊपर अनुकम्पा ( दया ) है, वह क्या ? कि, मेरे श्रावक (भिक्षु) धर्म के दायाद हो न कि आमिष के दायाद; हे भिक्षुओ यदि तुम आमिष-दायाद बनोगे तो तुम भी उससे लोकादेश ( लोक गाँ) के विषय बनोगे कि शास्ता के श्रावक आमिष के दायाद बन कर विचरते हैं,नकि धर्म के दायाद, और हे भिक्षओ ! इससे मैं भीलों का देश का विषय बनूगा कि शास्ता के श्रावक धर्म के दायाद बनकर विचरते हैं, नकि धर्म के दायाद बन कर । और हे भिक्षुओ ! तुम अगर आमिप के दायाद न बन कर धर्म के दायाद बन कर विचरोगे तो हे मितुओ! इससे तुम खुद लोकों के आदेश ( प्रशंसा ) के विषय बनोगे कि शास्ता के श्रावक धर्म के दायाद बन कर विचरते हैं नकि आमिष के दायाद बन कर । और हे भिक्षुओ ! इससे मैं भी लोकादेश लोकस्तुति का पात्र बनूंगा कि धर्म के दायाद बन कर शास्ता के श्रावक विचरते हैं, आमिष के दायाद नहीं। इस वास्ते हे भिक्षुओ ! तुम मेरे धर्म दायाद बनो नकि आमिष दायाद । मेरी तुम पर अनुकम्पा है, मैं चाहता हूँ कि मेरे श्रावक धर्म के दायाद बने. नकि आमिष के दायाद ।
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