________________
२ मिथ्याकारसाधु से कोई भी मानसिक, वाचिक, कायिक, अपराध हो जाने पर उसे तुरन्त "मिच्छा मी दुक्कडं'' (मिथ्या मे दुष्कृतम् ) अर्थात मेरा यह अपराध मिथ्या हो, इस प्रकार उसे भूल का पछतावा करना होता है।
३ तहत्ति ( तथाकार ) गुरु अथवा अपने से किसी बड़े श्रमण के कार्य-विषयक सूचना करने पर उसका स्वीकार करता हुआ साधु कहता है तहत्ति ( तथेति ) अर्थात वैसा ही करूंगा।
४ श्रावस्सिही ( अावश्यकी) अमण किसी जरूरी कार्य के लिये अपने स्थान से बाहर निकलता है, तब वह "श्रावम्सिही” ( आवश्यकी ) कहकर निकलता है क्योंकि श्रमण को निष्कारण भ्रमण निषिद्ध होने से वह इससे सूचित करता है कि मैं आवश्यक कार्य के लिये जा रहा हूँ।
५ निस्सिही ( नैषेधिकी) साधु आवश्यक कार्य से लौटकर अपने उपाश्रय में आता है तब "निम्सिही" ( नैषधिकी) कहकर स्थान में प्रवेश करता है। इसका तात्पर्य यह है कि वह जिस आवश्यक कार्य से बाहर गया था, उसको करके अब वह भ्रमण से निवृत्त हो गया।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org