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जैन श्रमणों के विहार-क्षेत्र की जो यह मर्यादा बाँधी है, उसका मुख्य कारण उन्हें मांस मत्स्य आदि अभदय भोजन से बचाना है, क्योंकि आर्यभूमि के बाहर अनार्य लोग बसते थे, उन में मांस मत्स्य खाने का अनिवारित प्रचार था । यद्यपि बौद्ध भिक्षु इस अनार्य भूमि में भी अपने धर्म का प्रचार करते थे परन्तु उन्हें भोजन पानी की इतनी कठिनाइयाँ नहीं पड़ती थी जितनी जैन श्रमणों को।
व्यवहार-सूत्र के भाप्य में यह उल्लेख मिलता है कि जैन श्रमण को किसी कारण से अनार्य देश में जाना पडे तो उसे बौद्ध भिक्षु का वेष पहन कर बौद्ध भिक्षु का साथ करना चाहिए
और अपने लिये आहार पानी स्वयं लाना चाहिए। यदि उसे दुर्भिक्षादि के कारण से आहार न मिले तो बौद्ध भिक्षुओं के साथ भोजन-शालादि में जाकर भोजन करना चाहिए । कन्द मूल मेरे शरीर के लिये अहित कर हैं, इस लिये इन्हें न परोसे यह कहने पर भी अगर आहार देने वाला मांस आदि उसके पात्र में डाल दे तो पात्र लेकर वहां से दूसरे स्थान पर चला जाय और अभक्ष्य द्रव्य को पात्र से निकाल कर निर्जिव स्थान में रख दे और शुद्ध द्रव्य का आहार करे । इस वस्तु का सूचन करने वाली भाष्य की डेढ़ माथा तथा उसकी टीका नीचे दी जाती है।
देसंतर संकमणं, भिकखुगमादी कुलिंगेणं । भावेति पिंडवाति त्तणेण, छेत्तच दबइ अपने।। कंदादि पुग्गलाणय अकारगं एय पडि सेहो ।
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