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( १६३ )
महु पुग्गलाई तिनि चल चल गाहिमं तु जंपर्क | ए एसिं संसद्ध बुच्छामि ग्रहाणुपुच्चीए
अर्थ - पांच प्रकार के दूध ( गाय, भैंस, बकरी, मेंढी और ऊँटनी का दूध) १, चार प्रकार के दही (गाय का, भैंस का, बकरी का. मेंढी का ) २, चार प्रकार के घी ( गाय, भैंस, बकरी और मेंढी के ) ३, चार प्रकार के मक्खन ( गाय, भैंस, बकरी और मेंढी के ) ४, चार प्रकार के तैल ( तिल्ली, सरसों, अलसी और करडी के ) ५, दो प्रकार के विकट ( मध्य, काष्ठज और पिष्टज ) ६, दो फाणित ( गुड़ और खांड़ के ) ७, मधु (शहद) ८, पुढल ( मांस ) ६, अवगाहिम ( पक्कान्न ) १० ।
॥ १६७ ॥ ( आ० नि० )
खीरं दहि नवणीयं वयं तहा तिल्लमेव गुडमज्जं । महुं मंसं चैव तहा गाहिमं च दशमी तु || ३७१॥ ( पं० वस्तु० )
अर्थ- दूध, दही, मक्खन, घी, तेल, गुड़, मद्य, मधु, मांस, और अवगाहिम ये दश विकृतियां मानी गई हैं ।
ऊपर के दोनों ग्रन्थों में दश विकृतियां बताई हैं । उसका अर्थ यही है कि इन ग्रन्थों के निर्माण-समय में मांस और पक्कान्न ये दोनों जुड़े माने जाते थे । जैन श्रमणों तथा व्रतधारी जैन उपासकों के लिये प्राण्यङ्ग सम्भव मांस किसी काम का नहीं था, फिर भी वह एक रस - विकृति है यह दिखाने के लिये मांस को पकान्न से
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