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में बड़ी क्षति पहुँचती है, इतना ही नहीं बल्कि मार्ग में बस स्थावर प्राणियों की विराधना का भी अधिक सम्भव रहता है। इस कारण से जैन श्रमणों को बड़े भोजों में भिक्षा के लिये जाना वर्जित किया है। यदि उक्त प्रकार की विराधना स्वाध्यायादि व्याघात का सम्भव न हो तो उन भोजन स्थानों में जाकर श्रमण भिक्षा ला सकते हैं।
२-आचाराङ्ग का द्वितीय अवतरण मांस मत्स्य सूत्र का है, यहां भी मांस शब्द का अर्थ दूसरे प्रकार का मांस अर्थात् फलों को छील काट कर निकाला हुआ गर्भ, साधु गृहस्थ के घर जाय तब तक उस फल गर्भ में से गुठलियां छिलके निकाले न हो तो गृहस्थ के देने पर भी साधु उन्हें ग्रहण न करे, क्यों कि वह एषणीय ( ग्राह्य ) प्रासुक ( निर्जीव ) नहीं होते । काटने छिलका दूर करने के बाद एक मुहूर्त समय व्यतीत होने पर ही वह फल प्रासुक हो सकता है । यदि गुठली तथा बीज भीतर ही मिले हुए हां तो वह फल अप्रासुक ही माना जाता है और जैन भिक्षु उसे ग्रहण नहीं करते, क्योंकि बीज या गुठली को जैनशास्त्रकार सचित ( सजीव ) मानते हैं, और सचित्त पदार्थ के साथ अचित्त पदार्थ जीव मिश्र होने से अप्रासुक माना गया है।
आचाराङ्ग के इस सूत्र से जो विद्वान् जैन श्रमणों पर मांस भक्षण का आरोप लगाते हैं, उन्होंने इस उद्धरण में आये हुए "अफासुयं अणेसणिज्ज" इन शब्दों का अर्थ नहीं समझा, अगर समझा है तो जान बूझ कर उस पर विचार नहीं किया । यदि इन
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