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( १८३ ) आदि से बनाया जाता था, जो मत्स्य इस नाम भी व्यवहृत होता था । “मद्यते अनेनेति मत्स्य." इस निरूक्तकारों की व्याख्या के अनुसार वह मत्स्य इस नाम से प्रसिद्ध हो गया था। “मत्स्यो झषे तथा देशभेदे मध्यान्तरेऽधमे” इत्यादि कोशकारों ने भी तुच्छ भोजन का नाम मत्स्य दे रक्खा था। कोदों का तन्दुल मादक होने के अतिरिक्त तुच्छ भी गिना जाता था ।
धान्यवाप के अधिकार में कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में लिखा है
प्ररूढांचाऽशुष्ककटुमत्स्यांश्च स्नुही क्षीरेण वापयेत् ।
(कौटि० अ० शा० पृ० ११७ अधि० २ अ० २४) अर्थ-तुषार पान से कुछ फूले हुए और न सूखे हुए कटुमत्स्यों मदन कोद्रवों) को थुहर के दूध का पुट देकर बोना चाहिए ।
उपयुक्त अर्थशास्त्र के उल्लेख से भी पूर्व काल में मत्स्य शब्द कोद्रव का बाचक था. यह निस्संदेह सिद्ध हो जाता है । - उक्त प्रकार के मांसादि तथा मत्स्यादि भोजन स्थानों में जाने तथा उन भोज्य पदार्थों को लेने का जैन भिक्षुओं को निषेध किया गया है । इसका कारण यह नहीं कि वे अभक्ष्य थे किन्तु ऐसे बड़े भोजों में अन्य अनेक भिक्षु, याचक आदि इकट्ठे होते हैं, मनुष्यों से मार्ग बहुत सकीर्ण बन जाते हैं, उन मार्गों से जल्दी आना जाना नहीं होता, श्रमणों को अपने स्वाध्याय ध्यानादि नित्य कर्मों
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