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मांस बेचने वाला, उसको पकाने वाला, परोसने वाला और खाने वाला ये सभी घातक हैं ( तुम अकेले नहीं ) ।
ऊपर लिखे अनुसार पशुघात जनित पाप को आठ भागों में बाँट देने पर कोई द्रव्य का लोभी ब्राह्मण घात करने को तैयार हो जाता, वह सोचता, दूसरे बलि मांस खाकर बात के पातकी बनेंगे, तब मैं तो घातकर के ही उस पापका अंशहर बन चुका हूँ. अव मांस खाकर पाप को दो भागों का भागीदार नहीं बनूंगा। इस पर अन्य ब्राह्मण उसे समझाते
"प्रोक्षितं भक्षयेन्मांसं ब्राह्मणानाञ्च काम्यया । यथाविधि नियक्तस्तु प्राणानामेव चात्यये ।
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ऋतः - यथाविधि पशुबध के लिये नियुक्त किये हुए ब्राह्मण की, ब्राह्मणों की इच्छा को मान देर प्रोक्षित मांस खाना चाहिए । इस विधि से था भूख से प्राण निकल जाते हों, उस स्थिति में मांस खाने में दोष नहीं है।
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मनुस्मृति" श्र० ४
उक्त वचनों से स्पष्ट होता है कि मनुस्मृति के समय तक पशुबन्ध यज्ञों में नियुक्त होने वाले और मांस खाने वाले दुर्लभ होगये थे । इसलिये विशेष दक्षिणा देकर नियुक्त बनाया जाता था और ब्राह्मणों की इच्छा का अनुरोध दिखाकर मांस खिलाया जाता था, परन्तु हिंसा यज्ञों की बाढ़ शतपथादि ब्राह्मण काल में ही उतर चुकी थी। उपनिषद्-काल में यह प्रवृत्ति नामशेष होरही थी, फिर
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