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दंसेति०२ समणस्स भगवो महावीरस्स पाणिसिं तं सव्वं संम निस्सरति त एणं समणे भगवं महावीरे अमुच्छिए जाव अणभोव वन्ने बिलमिव पन्नगभूएणं अप्पाणेण तमाहारं सरीर कोट्टगंसि पक्खिवति, त एण समणस्स भगवओ महा० तमाहारं आहारियस्स समाणस्स से विपुले रोगायके खिप्पामेव उव समं पत्ते हट्ठ जाए आरोगे वल्दिय सरीरे तुट्ठा समणा तुट्ठाओ समणीओ तुट्टा सावयां तुट्ठा ओ सावियाओ तुट्ठा देवा तुट्ठाओ देवीओ-स देव मणुयासुरे लोए तुढे हह जाए समणे भगवं महावीरे हट्ठ०२ ॥५५१।।
'भगवति सत" १५ पृ० ५५८
अर्थः-उस काल समय में में ढिय गाम नामक नगर था। वर्णन-उस में ढिय गाम नगर के बाहर ईशान दिश विभाग में साल कोष्ठक नामक चैत्य था, "वर्णन" । जहाँ पर विशाल पृथ्वी शिलापट्ट खुला आया हुआ था। उस शाल कोष्ठक नामक चैत्य से कुछ दूरी पर एक बड़ा मालुका कच्छ नामक निम्न भूमि भाग आया हुआ था। जो वृक्ष लताओं से सघन श्याम और श्याम कान्ति वाला पत्रों, पुष्पों, फलों से समृद्ध और हरियाली से भरा हुआ अतिशय सुशोभित वह कच्छ था।
उस में ढिय गाम में रेवती नाम की गाथापतिनी रहती थी। वह बड़ी धनाढ्य थी। उसका नाम बड़े मनुष्यों में गिना जाता था। उस समय श्रमण भगवान महावीर विहार क्रम से विचरते हुए में ढिय गाम के बाहर शाल कोष्ठक चैत्य में पधारे, वहां नगर
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