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ऊपर के विवरण से ज्ञात होगा कि धार्मिक हिंसा बौद्ध और जैनों के उपदेश से नहीं, परन्तु उसके साथ प्रजा के मनो-भाव का बदलना और यजमानों का घटना यह भी याज्ञिक हिंसा का हास करने में मुख्य कारण था। इन सब कारणों से आज वैदिक यज्ञ और पितृयज्ञ पशुबलि से मुक्त हैं। इतना ही नहीं किन्तु मधुपर्क पद्धति भी आज आमूल चूल परिवर्तित हो चुकी है, "मांस बिना अर्ध्य नहीं हो सकता" बौधायन के इस सिद्धांत को मानने वाला आज कोई भी ब्राह्मण दृष्टिगोचर नहीं होता ।
गोमांस भक्षण का निराधार आरोप
अध्यापक धर्मानन्द कौशाम्बी का यह मत है कि बौद्ध और जैनों के विरोधी प्रचार ने बडी मुश्किल से ब्राह्मणों में से गौ-बैल का मांस खाने का रिवाज बन्द करवाया । हमारी राय में कौशाम्बी जी का यह मत प्रामाणिक नहीं है । शतपथ ब्राह्मण में याज्ञवल्क्य के गोमांस भक्षण का स्वीकार करने का अर्थ यह नहीं हो सकता कि उस समय सारा ब्राह्मण समाज गौ-मांस खाता था । देवताओं ने जब गो-मेध किया और गौ अमेध्य होगया. उसके बाद याज्ञवल्क्य के सिवाय न किसी ब्राह्मण ने गौ का यज्ञ में बलिदान किया, न गौ-मांस ही खाया, गाय और बैल सर्व साधारण के लिए विशेष उपयोगी प्रतीत होने लने, तत्र देवताओं ने याज्ञवल्क्य से कहाः - गाय, बैल अनेक प्रकार से संसार के उपयोगी प्राणी हैं, हमने इनमें सभी प्राणियों की शक्ति रखदी है, अतः गाय बैल को न
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