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'शिताम' शब्द के उपयुक्त भाष्य में यास्क कहते हैं; शिताम का अर्थ "भुजा" है । शाकपूणि आचार्य कहते हैं शिताम का अर्थ " योनि" है । तैटीकि कहते हैं "कलेजा " है | गालव कहते हैं, 'शिताम' नाम श्वेत मांस अर्थात् मेदो धातु का है। इत्यादि अनेक निरुक्तकारों का मत प्राप्त होने पर भी अन्त में यास्क को शिताम शब्द को अनवगत कहना पड़ा। इस प्रकार सैकड़ों नवगत शब्दों पर भिन्न भिन्न निरुक्तकारों ने अपनी कल्पनायें दौड़ायी हैं, और कोई न कोई अर्थ अपने निरुक्तों में लिख दिया है । और इस प्रकार के निरुक्तों तथा उनके भाष्यों को प्रमाण मान कर उबट महीधर सायण, आदि ने वेदों पर भाग्य बनाये हैं । जिनका आधार ही कल्पित और शंकित है । उन भाष्यों का बताया हुआ वेदार्थ कहाँ तक यथार्थं होगा, इस वस्तु का विद्वानों को गहरा विचार करना चाहिए । हमारा मन्तव्य तो यही है कि निघण्टु और निरुक्तों के अभाव के समय में और उनकी अर्थ विषयक कल्पित परम्पराओं से ही पिछले वैदिक साहित्य में हिंसामय अनुष्ठानों का प्रवेश हुआ है । और पवित्र वैदिक संस्कृति को हिंसात्मक होने का दाग लगाया है, यह वस्तु यजुर्वेद में बीज के रूप में थी, परन्तु शत पथादि ब्राह्मण ग्रन्थों में और श्रौत सूत्रों में इसने बड़े वृक्ष का रूप धारण कर लिया । श्रवलायन श्रौत सूत्र के द्वितीय अध्याय में कोई तीस से अधिक याज्ञिक पशुओं का वर्णन मिलता है । इस श्रौत सूत्र के टीकाकार पण्डित नारायण लिखते है 'पशुगुणकं कर्म पशुः " अर्थात् यहाँ पशु शब्द से तात्पर्य पाशविक
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