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इच्छा और अनुशासन
वे काम के होते हैं। जब प्राण की शक्ति मिलती है, तब इच्छा अपना काम करने लग जाती है। हम प्राण-शाक्ति को ऐसे नियन्त्रण-केन्द्रों में संयोजित करें जिनसे हमारे ऊपरी भाग के केन्द्र जागृत हों और इच्छा पैदा करने वाला केन्द्र सो जाए, निष्क्रिय बन जाए। ऐसा होने पर इच्छा आएगी, विलीन हो जाएगी। फिर आएगी, फिर विलीन हो जाएगी। यह एक प्रक्रिया है इच्छा पर अनुशासन करने की। मनोनुशासनम् में इस प्रक्रिया को विस्तार से समझाया गया है। हम उसे पढ़ें। बहुत पढ़ना भी जरूरी नहीं है और न पढ़ना भी अच्छा नहीं है। किन्तु सबसे पहले अपने आपको जान सकें, उसे जरूर पढ़ें। जब अपने आपको भी नहीं जान पाते तो फिर पढ़ने का अर्थ क्या होगा? प्रश्न हो सकता है-मनोनुशासनम् पढ़ने की जरूरत क्या है? हम आचार्य तुलसी को जानते हैं। उन पर विश्वास है हमारा। कभी-कभी हमारा भ्रम भी हो जाता है। हम जो जानने की बात करते हैं, शायद नहीं जान पाते। किसी माध्यम से व्यक्ति को ज्यादा जान पाते हैं।
जब तक चेतना बहिर्मुखी रहेगी, हम किसी को भी नहीं जान पाएंगे, नहीं पहचान पाएंगे। न हम अपने आपको पहचान पाएंगे और न दूसरों को पहचान पाएंगे।
जब चेतना अन्तर्मुखी बनती है तब सबसे पहले अपने आपको जानने की बात प्राप्त होती है। जब हम अपने आपको जानते हैं, तब दूसरों को जानने में सुविधा हो जाती है। हमारी समस्याएं हल हो जाती हैं। स्वयं को जाने बिना हमारे मूल्यांकन की दृष्टियां यथार्थ नहीं होतीं। हम जितने भी क्राइटेरिया बनायेंगे, वे सारे अर्थशून्य होंगे। जब हम स्वयं को जान लेते हैं, तब दूसरों को पहचानने में हमें कोई कठिनाई नहीं होगी। तब हमारे सारे दृष्टिकोण यथार्थ होंगे, पहचान यथार्थ होगी।
अपने आपको जानने के लिए अन्तर्मुखी होना आवश्यक है। अन्तर्मुखी बनने के लिए मन पर अनुशासन करना जरूरी है और मन पर अनुशासन तब फलित होता है जब इच्छा पर अनुशासन साध लिया जाता है। इसलिए अनुशासन का क्रम होगा
* इच्छा पर अनुशासन । * मन पर अनुशासन। इसका फलित होगा-अन्तर्मुखता।
इच्छा पर अनुशासन होने पर आहार पर अनुशासन स्वत: प्राप्त हो जाता है। जैसे-जैसे इच्छा कम होती जाएगी, आहार पर नियन्त्रण होता जाएगा। आदमी ज्यादा त्यों खाता है? इच्छा ही उसका मुख्य कारण है। आवश्यकतावश कोई अधिक नहीं खाता। प्रत्येक व्यक्ति यह अनुभव करे कि वह आवश्यकतावश कितना
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