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शारीरिक अनुशासन के सूत्र
एक साधक ने कहा-मैंने सुना है, शरीर अनित्य है, अशुचि है और अशुचि से उत्पन्न है। एक बार नहीं, अनेक बार मैंने सुना है। यहां मैं साधना के लिए आया। मुझे कहा गया-शरीर को देखो। बार-बार कहा गया, शरीर को देखो। मैं असमंजस में पड़ गया। जो अचि है, अनित्य है, नश्वर है, विजातीय है, गन्दा है, हाड़-मांस का पुतला है, उसको देखने का अर्थ ही क्या हो सकता है? साधना करनी है। किसी बड़ी चीज को देखना है। आत्मा-परमात्मा को देखने का प्रयोजन ही क्या हो सकता है? कोई प्रयोजन नहीं है। दूसर बात है, यह शरीर मिला है सुख-सुविधा का उपभोग करने के लिए। आराम से रहें, ठंडी हवा में रहें, ठंडा पीएं, गरम खाएं, सारी सुविधाओं को भोगें-यह है शरीर का प्रयोजन। शरीर भोग का साधन है। यह भोग करने के लिए मिला है। हम बेचारे को क्यों सताएं? ध्यान में एक आसन पर बैठना होता है। सारा शरीर दुखने लग जाता है। पैर दर्द करने लग जाते हैं। शरीर पसीना-पसीना हो जाता है। यह शरीर को सताना है, कष्ट
देना है।
प्रश्न बहुत हो सकते हैं, किन्तु यदि हम इन प्रश्नों में उलझते चले जाएं तो प्रश्न भी अनन्त होता चलेगा और उत्तर भी अनन्त होता चलेगा। समाधान कभी नहीं होगा। उलझना नहीं है। हम इस बात को स्वीकार कर लें कि शरीर अशुचि है, अपवित्र है, नश्वर है, अनित्य है और यह भी मान लें कि आदमी उसे सताता है। स्थूल बुद्धि से कही हुई बात स्थूल बुद्धि से स्वीकार कर लेनी चाहिए। कहने वाला जब अपनी स्थूल बुद्धि से कहता है तो उत्तरदाता को भी स्थूल बुद्धि का प्रयोग करना चाहिए, जिससे कि कहने वाला भड़के नहीं।
मैंने प्रश्नकर्ता के दोनों तर्क स्वीकार कर लिए। मैंने कहा-शरीर अशुचि है, यह तुमने सुना और सुनाने वाले ने सुनाया। दोनों सही हैं। सुनने वाला भी गलत नहीं है और सुनाने वाला भी गलत नहीं है। हम मानते हैं, हर आदमी जन्म लेता है और मर जाता है। वह अनित्य है। हम जानते हैं, शरीर में से अचि पदार्थ निकलते हैं। यदि शरीर को साफ न किया जाए तो कोई पास में आकर बैठना भी नहीं चाहेगा क्योंकि भयंकर दुर्गंध उसमें से निकलने लग जाएगी। पसीने से बदबू आती है। मल-मूत्र से बदबू आती है। बहुत ही अपवित्र है शरीर। यह तो प्रकृति की अच्छी देन है कि हमारी देखने, सुनने और सूंघने की शक्ति सीमित है, सीमा में आबद्ध है। एक निश्चित आवृत्ति पर ही हमारी ज्ञानेन्द्रियां काम करती हैं। यदि
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