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शारीरिक अनुशासन के सूत्र इन्द्रियां सीमा से परे का काम करने लग जाएं, तो आदमी अपने स्वयं के शरीर के पास भी नहीं रह सकेगा। वह इन्द्रियों के विषयों से इतना तनावग्रस्त हो जाएगा कि कुछ ही क्षणों में वह पागल बन जाएगा। प्रकृति की कोई ऐसी व्यवस्था है कि मनुष्य का ज्ञान तो बहुत विशाल है, परन्तु इन्द्रियां इस ज्ञान में से थोड़े से ज्ञान को स्वीकार करती हैं। यदि कान सारे शब्दों को सुनने लग जाएं तो आदमी एक ही दिन में पागल हो जाएगा। यदि आंखें सारी वस्तुओं को देखने लग जाएं तो आदमी सो नहीं पाएगा, पागल बन जाएगा। यदि घृणा सब कुछ सूंघने लग जाए तो हर क्षण के लिए आदमी प्रसन्न नहीं रह सकेगा। उसका जी मिचलाता ही रहेगा, बमन होता रहेगा। गंध आती रहेगी। प्रत्येक इन्द्रिय की व्यवस्था कर ली कि वह निश्चित आवृत्ति या फ्रीक्वेन्सी पर ही अपना कार्य करेगी। यह बहुत अच्छी बात हो गई। अन्यथा आदमी के लिए जीना दूभर हो जाता। वह तब कुछ भी नहीं सुन पाता, कुछ भी नहीं देख पाता और कुछ भी नहीं सूंघ पाता। बह इन विषयों से निरन्तर आक्रान्त रहता और पागल बन जाता। हमारे स्वयं के शरीर से इतनी बदबू निकलती है कि यदि नाक उसको ग्रहण करने लग जाए तो आदमी सहन ही नहीं कर पाएगा। पर यह नाक की अपनी सीमा है कि वह सारी गंध में अमुक-अमुक गंध ही स्वीकार कर पाता है, इसलिए आदमी जी रहा है।
एक बार वैज्ञानिक ने साउंड-प्रूफ मकान बनाया। उसमें बाहर की आवाज भीतर प्रवेश नहीं करती और अन्दर की आवाज बाहर नहीं जाती। कुछ वैज्ञानिक प्रयोग के लिए उस मकान के भीतर बैठे। मशीन की-सी आवाजें आने लगीं। उन्हें आश्चर्य हुआ कि ये आवाजें कहा से आ रही हैं? शब्द निरोधक मकान में बाहर से आवाजें कैसे आ सकती हैं? सोचने पर ज्ञात हुआ कि बाहर से कुछ भी नहीं आ रहा है, शरीर के भीतर जो एक विशाल फैक्ट्री चल रही है, सारी उसकी आवाजें हैं। रक्त चल रहा है धमनियां कार्यरत हैं, सारा नाड़ी तंत्र सक्रिय हैं-ये सब आवाजें उनकी हैं।
जब बाहर की आवाज होती है तब भीतर की आवाजें नहीं सुनाई देतीं। जब बाहर की खटखटाहट बन्द होती है तब पता चलता है कि भीतर में कितनी आवाजें हो रही हैं। जब व्यक्ति ध्यान की गहराई में आता है, शरीर-प्रेक्षा में एकाग्र होता है तब उसे ज्ञात होता है कि शरीर में कहां-कैसे स्पन्दन हो रहे हैं। पहले पता ही नहीं चलता। हमारे शरीर की ऐसी व्यवस्था है, तभी आदमी जीवन जी पाता हैं।
मैं इस बात से इन्कार नहीं करता कि शरीर अपवित्र है, अशुचि है और इस बात को भी स्वीकार करता हूं कि ध्यान की विविध प्रक्रियाओं में शरीर को कष्ट होता है। सात बजे उठने वाले लोग चार बजे उठते हैं, यह शरीर को कष्ट ही है।
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