Book Title: Main Kuch Hona Chahta Hu
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 154
________________ ब्रह्मचर्य १४७ मन से संयम करने की बात सीखनी है तो आध्यात्मिक संयम की बात सीखनी होगी कि भीतर के स्रावों को, भीतर के रसायनों को कैसे नियंत्रित कर सकें एवं विद्युत् प्रवाहों को कैसे संतुलित कर सकें। यह साधना करनी होगी। आध्यात्मिक साधना होगी तो मानसिक साधना होगी और मानसिक साधना होगी तो शारीरिक साधना होगी। ___ कुछ लोगों में यह प्रश्न होता है कि जो ब्रह्मचारी होगा उसका शरीर तेजस्वी होगा, मजबूत और दृढ़ होगा। यह भी एक भ्रांति है, बहुत बड़ी भ्रांति है। अच्छा चमकता हुआ चेहरा तो उस व्यक्ति का होगा जिसका खून ज्यादा अच्छा है। हमने खोजा तो यह तथ्य निकला कि जो अच्छा खाता है, पीता है, पाचन अच्छा है और रक्त अच्छा बनता है तो उसका चेहरा चमकेगा। वैसे व्यक्ति को हमने देखा है, जो घोर अब्रह्मचारी है, उसका चेहरा ऐसा चमक रहा है मानो लहू टपक रहा हो। खोज गया तो पता चला कि प्राचीन साहित्य में ब्रह्मचारी के लिए कहा गया कि राख से ढकी हई आग है-भीतर में ज्योति है और ऊपर राख है। क्योंकि उसने अपनी साधना के लिए तपस्या के द्वारा शरीर को इतना तपा लिया कि मांस तो बहुत सूख गया है-बाहर से तो रुखा लग रहा है और भीतर में ज्योति जल रही है। संतवाणी को देखा तो कबीर की वाणी में मिला कि 'बाहर से तो कछु न दीखै, भीतर जली रही जोत ।' बाहर से तो कुछ नहीं दिख रहा है और भीतर में ज्योति जल रही है। एक तेजपुंज जैसा हो रहा है। आचार्य भिक्षु की वाणी में मिला कि 'मांस लोही कम हुवै तपसी तणै'-जो तपस्वी है उसके मांस भी कम होगा, रक्त भी कम होगा। वह तो बेचारा सूख जाता है। योगी का पहला लक्षण है-शरीर की कृशता। धर्मचन्द ने एक संस्मरण सुनाते हुए कहा-अभी-अभी कलकत्ता में मैं एक योगी से मिला। उसको मेरे द्वारा लिखी गई योग की कुछ पुस्तकें दीं। उसने उलट-पुलट कर देखा। कुछेक बातों पर उसका ध्यान गया। उसने पूछा-इन पुस्तकों में जो लिखा है वह अनुभव की वाणी है या केवल सिद्धांत की बात है? मैंने कहा-अनुभव की। फिर उसने पूछा-लिखने वाले का शरीर कृश है या चर्बी से भरपूर ? मैंने कहा-अत्यन्त कृश । योगी बोला-ठीक है, मैं समझ गया। ब्रह्मचर्य के द्वारा उपलब्ध होती है-सहिष्णुता की शक्ति, बुद्धि की प्रखरता यानी सूक्ष्म-सत्य तक पहुंचने की शक्ति। ब्रह्मचारी में इतना धैर्य होगा कि वह हर बात को सहन कर लेगा, अधीर नहीं बनेगा। धीर की परिभाषा करते हुए कवि कहता है-विकारहेतौ सति. विक्रियन्ते येषां न चेतांसि त एव धीरा:-विकार का निमित्त होने पर भी जिसका चित्त विकृत नहीं होता, वह धीर होता है। यही धृति है। ब्रह्मचर्य के द्वारा धृति का विकास होता है। मनोबल का विकास होता है। लोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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