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मानसिक अनुशासन के सूत्र
हुई थी। हमारी यह पृथ्वी आकाशीय चुम्बकीय तत्वों से जुड़ी हुई है। हमारा मन भी आकाशीय और पृथ्वी के चुम्बकीय तत्त्वों से जुड़ा हुआ है । न जाने कितने चुम्बक हमें खींच रहे हैं । न जाने कितने आकर्षण आ रहे हैं।
डॉक्टर नैवद्य ने अध्ययन किया कि मनुष्य के मन पर चन्द्रमा का क्या प्रभाव होता है ? ज्योतिष के अनुसार मन की स्थिति भी वैसी ही होगी । इसलिए सम्भवत: यह कहावत चल पड़ी कि 'अपना-अपना चन्द्रमा देखो ।' दूज का चांद और पूनम का चांद मन को बहुत प्रभावित करता है। उस डाक्टर ने और भी अनेक तथ्य खोज निकाले । उन तथ्यों के आधार पर यह सारी बात समझ में आ जाती है। अष्टमी के उपवास की प्रथा क्यों चली ? चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या को उपवास और पौषध करने की प्रथा क्यों चल पड़ी? इसकी व्याख्या हमारे पास नहीं है। किन्तु डाक्टर नैवद्य ने यह बात स्थापित की कि इन दिनों में चन्द्रमा समुद्र में तूफान लाने वाला होता है, और वह मन में भी तूफान लाता है। यदि इन दिनों में उपवास किया जाता है, धर्म- जागरिका की जाती है तो तूफान मिट जाते हैं और मन शांत रहता है ।
यह प्रमाणित हो चुका है कि हमारा मन बाहरी स्थितियों से प्रभावित होता है । वह केवल चन्द्रमा से ही प्रभावित नहीं होता, अनेक घटनाओं तथा व्यक्तियों से भी प्रभावित होता है । मन बहुत ही ग्रहणशील है। बाहर से हर घटना को लेता है और प्रभावित हो जाता है । किसी ने गाली दी, किसी ने प्रशंसा की तो तत्काल प्रभावित हो जाता है । यह तो बाहर के प्रभाव की बात है । भीतर में न जाने कितना - क्या भरा है। बहुत भरा हुआ है ।
पिता ने कहा- बेटा! बाजार में जाओ और भूसा ले आओ। वह बोला- पिताजी! बाजार में जाने की क्या जरूरत है ? स्कूल में मास्टर जी कह रहे थे- तुम्हारे दिमाग में तो बहुत भूसा भरा है । पिताजी! आप उसी को काम में ले । बाहर से क्यों मंगा रहे हैं ?
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प्रत्येक व्यक्ति के भीतर बहुत कुछ भरा है । उसका अन्त ही नहीं है। मन को प्रभावित करने वाले झरने भीतर में इतने हैं कि उनकी गणना मुश्किल होती है । बाहर और भीतर के प्रभावों से मन को बचाना, उसे स्वच्छ रखना, बहुत बड़ी समस्या है । दोनों से निपटना सरल, सहज नहीं है। साधक को इस दोहरी समस्या का सामना करना ही पड़ेगा, अन्यथा मनः शुद्धि असंभव है । और कोई उपाय नहीं है
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मनः शुद्धि के दो उपाय बतलाएं हैं- संकल्प की दृढ़ता और एकाग्रता का अभ्यास | आदमी का संकल्प नहीं होता अत: वह अपने कार्य में सफल भी नहीं होता । वह कल्पना करता रहता है। कल्पना का कहीं अन्त नहीं आता । कल्पना
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