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में मनुष्य हूं (२)
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भी जानते हैं। वैसे ही हम अन्तर्जगत् में होने वाले परिवर्तनों और परिणामों को भी जान सकते हैं। किन्तु जो व्यक्ति ध्यान के अभ्यास से नहीं गुजरता, वह सदा बाह्य जगत् के परिवर्तनों को जानेगा, भीतर में होने वाले परिवर्तनों को नहीं जान पायेगा। जब बाह्य जगत् ही ध्येय बना रहता है तब बहिर्मुखता बनी रहती है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि जब तक व्यक्ति बहिर्मुख होता है तब तक उसका ध्येय वस्तु जगत् ही बना रहता है। अन्तर्मुखता के बिना आन्तरिक जगत् को ध्येय बनाने के साथ-साथ अंतर्जगत् को भी ध्येय बना लेना। श्वास से होने वाले परिवर्तनों और परिणामों को जानना, शरीर में होने वाले परिवर्तनों और परिणामों को जानना--यह प्रेक्षाध्यान की प्रक्रिया है। इससे आगे बढ़ने का रास्ता सरल बन जाता है। ये सारी प्रक्रियाएं भारतीय योग की थाती थीं। लोगों ने इनको विस्मृत कर दिया। आज पश्चिम के लोग यंत्रों के माध्यम से अपने अन्तर्जगत् को जानने का प्रयत्न कर रहे हैं। वे “बायोफीडबेक' पद्धति के द्वारा अपने भीतर होने वाली घटनाओं और परिवर्तनों को जानने का प्रयत्न कर रहे हैं और फिर उन्हें बदलने का प्रयत्न कर रहे हैं। तापमान को घटाना, बढ़ाना, नाड़ी की गति को तीव्र करना या मन्द करना, फिर उनके लिए सरल बन जाता है। जहां दर्द है. उसका अनुभव करना, उसको कम करना, यह संभव है। भीतर में असंख्य घटनाएं घटित होती रहती हैं, परन्तु ध्यान के बिना उन्हें पकड़ा नहीं जा सकता। यह सही है कि आदमी निकट में होने वाली घटनाओं को नहीं देखता, जानता। प्रचलित कहावत है-आदमी पर्वत पर लगी आग को देख लेता है, पर पैरों तले जल रही आग को नहीं देख पाता। आदमी बाह्य जगत् से जितना परिचित है उतना ही वह आंतरिक जगत् से अपरिचित है। आदमी अपने अस्तित्व से भी अपरिचित है। वह अपने आपको नहीं जानता।।
आदमी अपने अस्तित्व के साथ संपर्क स्थापित कर सकता है। उसकी भी एक प्रक्रिया है। बिना उस प्रक्रिया से गुजरे, हजार प्रयत्न करने पर भी कोई अपने अस्तित्व को नहीं जान सकता। उस प्रक्रिया का पहला हेतु है-स्वार्थ । स्वार्थ बाहर भी जाता है और भीतर भी जाता है। वह उभयमुखी सेतु है। वह बाह्य जगत् से अन्तर्जगत् के माध्यम का सेतु है। जो व्यक्ति बाह्य जगत् से अन्तर्जगत् में प्रवेश पाना चाहता है उसे इस मध्यवर्ती सेतु का उपयोग करना ही होगा।
____ अन्त:प्रवेश का दूसरा माध्यम बनता है-शरीर। शरीर को देखना, जानना एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। शरीर को देखने का अर्थ यह नहीं है कि शीशे के सामने खड़े होकर अपनी प्रतिछाया को देखना, रूप-रंग को देखना, आकार-प्रकार को देखना। इनको देखना खुली आंखों से होता है। शरीर-प्रेक्षा की क्रिया बन्द
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