Book Title: Main Kuch Hona Chahta Hu
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 126
________________ मैं आत्मानुशासन चाहता हूं समाज में जीने वाला प्रत्येक व्यक्ति किसी संयम, नियम, नियंत्रण या अनुशासन के साथ जीता है। स्वतंत्रता की बात बहुत अच्छी है किन्तु हमारी बहुत प्रभावी दुनिया में, नाना प्रकार के संक्रमणों और प्रभावों से गुजरने वाली दुनिया में स्वतंत्रता सापेक्ष ही हो सकती है । निरपेक्ष स्वतंत्रता की बात कभी हमें प्राप्त नहीं होती । एक संस्कृत कवि ने लिखा है पिता रक्षति कौमारे, भर्त्ता रक्षति यौवने । पुत्रो रक्षति वार्धक्ये, न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति । । स्त्री स्वतंत्र नहीं होती। कुमारी होती है तब पिता उसकी रक्षा करता है, युवति होती है तब पति रक्षा करता है और वृद्ध होती है तब पुत्र रक्षा करने लग जाता है 1 स्त्री के विषय में कही गई बात सभी पर लागू होती है । केवल स्त्री ही नहीं, पुरुष भी स्वतंत्र नहीं होता । प्राणी जगत् का कोई भी प्राणी स्वतंत्र नहीं होता, इतने प्रभाव हैं हमारी दुनिया में । वातावरण का प्रभाव, परिस्थिति का प्रभाव, सौरमंडल का प्रभाव, दूसरे दूसरे प्राणियों का प्रभाव, वाणी का प्रभाव। इतने प्रभावों की दुनिया में हम जीते हैं, वहां निरपेक्ष स्वतंत्रता की बात सोची ही नहीं जा सकती। अनुशासन और नियन्त्रण बराबर चलते हैं 1 एक अन्तर होता है अनुशासन और नियन्त्रण का कोई नियन्त्रण बाहरी प्रभाव से आता है और कोई नियंत्रण भीतरी प्रभाव से आता है। बाहर से आने वाले नियंत्रण नियंत्रण कहलाते हैं या परानुशासन कहलाते हैं, आरोपित अनुशासन कहलाते हैं । भीतर से फूटने वाला नियंत्रण आत्मानुशासन की प्रक्रिया है । यदि ध्यान के द्वारा, कायोत्सर्ग के द्वारा आत्मानुशासन का विकास न हो तो ध्यान और कायोत्सर्ग भी एक नशे की गोली बन जाएगा। गोली ली, नशा आ गया। आराम का अनुभव हुआ। नशा उतरा फिर वैसा का वैसा । यह यदि मादकता की बात हो और एक सामायिक उपचार हो तो इसे बहुत मूल्य नहीं दिया जा सकता और न ही दिया जाना चाहिए । मैं मानता हूं कि ध्यान, कायोत्सर्ग - ये सामयिक उपचार नहीं हैं, दीर्घकालीन उपचार हैं। तीन काल हैं-अतीत, वर्तमान और भविष्य । अतीत का हमारे ऊपर बहुत प्रभाव होता है । हम कितनी ही स्वतंत्रता की बात करें और सोंचे, पर अतीत I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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