Book Title: Main Kuch Hona Chahta Hu
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 150
________________ ब्रह्मचर्य वीर्य स्खलन हो गया। जिसके वीर्य स्खलन हो गया उसे वे ब्रह्मचर्य नहीं मानते, बड़ी विचित्र बात है । कई लोग तो बड़े चिंतित हो जाते हैं । यह कोई इतनी चिन्ता की बात नहीं है। अगर किसी दुर्भावना से, किसी उत्तेजना से वीर्य स्खलन होता है तो सचमुच चिंता की बात हैं । यह बार-बार नहीं होना चाहिए। किन्तु एक प्राकृतिक नियम है कि जब वीर्य ग्रंथियों में समा नहीं सकता तो वह बाहर निकलता है । यह कोई चिन्ता की बात नहीं है । अनावश्यक चिन्ता भी आदमी को सताने I लगती है । अब रहा प्रश्न ब्रह्मचारी का, सब व्यक्ति ब्रह्मचारी बन सके यह तो बहुत कठिन बात है, कठिन साधना है । सामान्य व्यक्ति अपने 'काम' की पूर्ति करते हैं और जीवन चलाते हैं। कुछ लोग ऐसे हो सकते हैं जो इस दिशा में उसका संयम करना चाहते हैं, संयम करते हैं । अब प्रश्न है अति का । 'काम' का अतिसेवन भी खतरनाक होता है। उससे शक्तियां बहुत क्षीण होती हैं । सुकरात से पूछा गया कि मनुष्य को संभोग कितनी बार करना चाहिए? उन्होंने कहा- 'जीवन में एक बार । ' 'यह संभव न हो तो?" 'वर्ष में एक बार । ' 'यह भी संभव नहीं हो तो ?' 'महीने में एक बार । ' 'यह भी संभव न हो तो?' 'फिर कफन सिर पर रख लो और चाहे जैसे चलो। ' यह बिलकुल सही बात है कि जो अति है वह बहुत खतरनाक है । कुछ लोग जो मनोविज्ञान की भाषा में सोचते हैं वे ऐसा भी सोचते हैं कि ब्रह्मचारी रहने वाला पागल हो जाता है, विक्षिप्त हो जाता है । बात भी ठीक है । इसमें सचाई भी है कि अब्रह्मचर्य सुख है | इसमें कोई संदेह नहीं माना गया है। आदमी एक सुख को ठुकरता है, शरीर की मांग को ठुकराता है तो प्रतिक्रिया होती है, कुछ विक्षेप होता है और पागलपन - सा आता है । किन्तु यदि उससे दूसरा बड़ा सुख मिल जाता है तो पागलपन नहीं आता और अधिक आनंद आने लग जाता है । यह पागलपन का जो प्रश्न आता है वह उस स्थिति में आता है, जब आदमी प्राप्त सुख को छोड़ता है और दूसरा सुख कोई सामने नहीं होता । एक लकीर है। उसके नीचे बड़ी लकीर खींच दें तो पहले वाली अपने आप छोटी हो जाएगी। किन्तु लकीर कोरी रहती है तो बड़ी या छोटी की बात नहीं होती। बड़ा सुख उपलब्ध किया जाए तो फिर यह बात अपने आप गौण हो जाती है । Jain Education International १४३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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