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मैं कुछ होना चाहता हूं
सकता है. समझा जा सकता है। वे तर्क और बुद्धि के विषय नहीं बनते। यदि दर्शन के साथ फिर साक्षात्कार की बात जुड़ जाए तो यह स्पष्ट है कि दर्शन और विज्ञान की दूरी मिट सकती है।
___ दर्शन पिता माना जाता है और विज्ञान पुत्र । किन्तु आज पुत्र विज्ञान इतना तेजस्वी, वर्चस्वी और यशस्वी बन गया है कि लोग पिता दर्शन को भूल ही गए। पिता कहीं कोने में बैठा रो रहा है और पुत्र सारे संसार पर एकछत्र नियन्त्रण कर रहा है।
ध्यान का प्रयोग दर्शन को पुन: अपने मूल स्थान पर प्रतिष्ठित करने का प्रयोग है। वह पुनः अपने सिंहासन पर आरूढ़ हो सकता है, अपनी खोई हुई तेजस्विता को प्राप्त कर सकता है, यदि उसके साथ साक्षात्कार की प्रक्रिया जुड़ जाए। ध्यान साक्षात्कार का अचूक माध्यम है। ध्यान के अभ्यास के बिना साक्षात्कार की घटना घटित नहीं हो सकती।
ध्यान की प्रारंभिक अवस्था में साधक को कुछ अटपटा-सा लगता है। उसे वह भूलभुलैया प्रतीत होता है। ऐसा होना अस्वाभाविक नहीं है, बहुत स्वाभाविक है। क्योंकि जिस व्यक्ति ने चेतना की गहराई में जाना सीखा ही नहीं, उसे ध्यान की सारी प्रक्रिया अटपटी ही लगेगी। ऐसा लगना स्वाभाविक है, क्योंकि आज का आदमी चेतना के स्तर पर जी रहा है, उस स्तर में ये सारी बातें होती है। हम इस बात को कभी विस्मृत न करें कि उस चेतना के स्तर पर जीने वाला कोई भी व्यक्ति, फिर चाहे हजार वर्ष भी बीत जाएं, कभी विकास नहीं कर सकता। विकास का मूल मंत्र है-स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश करना, स्थूल जगत् से हटकर सूक्ष्म जगत् की यात्रा करना। जिन लोगों ने सूक्ष्म की यात्रा नहीं की, जिन लोगों ने सूक्ष्म सत्यों का अनुभव नहीं किया और सूक्ष्म में प्रवेश पाने का प्रशिक्षण नहीं लिया वे सदा काठ के घोड़े पर ही सवारी करने वाले रहेंगे, वो कहीं नहीं पहुंच पाता। वे कभी सूक्ष्म का स्पर्श नहीं कर सकेंगे।
आवश्यक यह है कि शिक्षक की निष्ठा केवल पुस्तकों पर या केवल स्थूल पर न रहे। पुस्तकों के अतिरिक्त भी ज्ञान का स्रोत है, स्थूल के अतिरिक्त भी सूक्ष्म का कोई स्रोत है-इस बात पर भी उसकी निष्ठा बने। यह उभयपक्षीय निष्ठा मनष्य को आगे बढ़ाती है। एकपक्षीय निष्ठा विकास को रोकती है।
- हम चेतना के आयाम और विकास की चर्चा कर रहे हैं तथा उसी के संदर्भ में दर्शन की मीमांसा कर रहे हैं। दर्शन का अर्थ होगा साक्षात्कार तथा बौद्धिक और तार्किक विकास की मिलीजुली प्रक्रिया। दोनों आवश्यक हैं। बौद्धिक और तार्किक विकास भी आवश्यक है और साक्षात्कार भी आवश्यक है। यह इसीलिए
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