Book Title: Main Kuch Hona Chahta Hu
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 121
________________ ११४ मैं कुछ होना चाहता हूं है। आज विषमता से समूचा समाज पीड़ित है। बड़ी विषमता है। एक व्यक्ति के सामने इतनी समृद्धि है कि जिसका अंत नहीं। और दूसरे के पास अभाव की इतनी स्थिति कि उसका भी अन्त नहीं। हम जानते हैं कि जो भी प्राणी बना है, वह भोजन के बिना अपने जीवन की यात्रा को नहीं चला सकता। मनुष्य कैसे चलाएगा? किन्तु मनुष्य के सामने विषमता के कारण ऐसी कठिनाइयां हैं कि जीवन-यात्रा को चलाने में ही सारी प्राण-ऊर्जा समाप्त हो जाती है। शक्ति खर्च हो जाती है। कुछ काम करने के लिए बच ही नहीं पाती। नया काम कैसे करे? शक्ति रहती ही नहीं। सुबह से जगता है और सोता है तब तक सारी शक्ति उसी चिंता में खप जाती है। पशु चरने को जाते हैं, सुबह जाते हैं, शाम ३-४ बजे तक बेचारे ग्रास लेते जाते हैं और अपना पेट भरते हैं। फिर तो निश्चिन्त हो जाते हैं, किन्तु आदमी को खाने की, चरने की चिन्ता सोते हुए भी सताती है, नींद में भी सताती है। उठते भी सताती है, सोते हुए भी सताती है। चिन्ता निरन्तर बनी रहती है कि आज कैसे काम चलेगा? इस विषमतापूर्ण आचारण ने एक समस्या उत्पन्न की है। आचार का परिष्कार चाहता है। इसका अर्थ है-समतापूर्ण आचार चाहता हूं। आचार्य सोमदेव ने लिखा है-'समता परमं आचरणम्।' आचार का सबसे बड़ा सूत्र है-समता, साम्यभाव, समानता। यह केवल समाजवाद या साम्यवाद का ही सत्र नहीं है। यह हर चिंतन की अच्छाई का सत्र है कि जहां समतापूर्ण मन:स्थिति होती है वहां समाज का विकास होता है और जहां समाज की आचारधारा में विषमता होती है वहां समाज का पतन होता है। आचार के परिष्कार का अर्थ है-समता का विकास। तीसरी बात है कि स्वभाव का परिवर्तन चाहता हूं, संस्कार का परिवर्तन चाहता हूं। वह स्वभाव जो शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक हानि पहुंचाता है, शरीर को भी नुकसान देता है, कष्ट देता है, मन को भी संताप देता है, मन झुलस जाता है और आंतरिक वृत्तियों को भी कष्ट देता है, उस स्वभाव से मुक्ति चाहता हं। स्वभाव की जटिलता के कारण मनुष्य संघर्ष में से गुजरता है और उसकी एक भट्टी जलती रहती है, जिसकी आंच सदा प्रताड़ित करती रहती है। चूल्हे के सामने बैठने वाला व्यक्ति, रसोई बनाने वाला व्यक्ति गर्मी का अनुभव करता है। पर तभी जबकि वह चूल्हे के सामने बैठता है। किन्तु हमारे भीतर तो कई चूल्हे जल रहे हैं। कभी क्रोध का, कभी अहंकार का, कभी वासना का तो कभी भय का। न जाने कितने चूल्हे जल रहे हैं! कितनी आंच पक रही है। उस आंच के कारण स्वभाव बिगड़ता जाता है और उसका परिणाम शरीर पर होता है तो शरीर रुग्ण हो जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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