Book Title: Main Kuch Hona Chahta Hu
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 122
________________ मैं कुछ होना चाहता हूं ११५ है। मन पर होता है तो मन रुग्ण हो जाता है और भावना पर होता है तो भावनाएं रुग्ण हो जाती हैं। आन्तरिक वृत्तियां रुग्ण होती हैं। मैं उनका परिष्कार चाहता हूं। भाव का परिष्कार चाहता हूं। इसका अर्थ होगा कि अपने आवेगों पर नियमन चाहता हूं, आवेशों पर नियमन चाहता हूं, अपने कषायों पर नियमन चाहता हूं क्योंकि इसी से एक सुखद स्थिति का निर्माण होगा। एक डॉक्टर ने बीमार से कहा कि तुम तम्बाकू पीना छोड़ दो। पास में खड़े व्यक्ति ने पूछा-डॉक्टर साहब! तम्बाकू नहीं पीएगा तो क्या इससे यह ठीक हो जाएगा? डॉक्टर ने कहा-और ठीक होगा या नहीं मुझे नहीं पता, किन्तु मेरा बिल चुकाने की स्थिति में जरूर आ जाएगा। इतना तो होगा। इतना धूम्रपान करता है तो अर्थ-शक्ति तो सारी धूम्रपान में ही चुक जाती है, फिर बिल चुकाने की स्थिति में ही नहीं रहते। ये तीन परिष्कार हैं। प्रेक्षा-ध्यान का पूरा प्रयोग इन तीन परिष्कारों के लिए है कि व्यक्ति का व्यवहार बदले, आचार बदले और स्वभाव बदले। इसका दूसरा अर्थ होगा कि क्रूरता समाप्त हो और करुणा जागे। विषमता समाप्त हो और समता की चेतना जागे। आवेश समाप्त हो और सहिष्णुता तथा मानसिक शांति की चेतना जागे । इस अर्थ में यह घोष हमारे सामने है कि मैं कुछ होना चाहता हूं।' ऐसा मनुष्य होना चाहता हूं कि जिसमें ये तथ्य प्रवाहित हो रहे हों। मृदुता की धारा, समता की धारा और शांति की धारा-यह त्रिवेणी जिसमें प्रवाहित हो रही है, ऐसा चेतना-सम्पन्न मनुष्य होना चाहता हूं। यह हमारा नया प्रस्थान है। एक प्रायोगिक प्रस्थान। हम सिद्धांत की बात बहुत करते हैं, बहुत रस लेते हैं क्योंकि दिमागी व्यायाम में जितना आनन्द मिलता है उतना प्रयोग में नहीं मिलता। दिमागी कसरत करने में बड़ी अच्छी बात होती है। सीधा काम है। उसमें कोई कष्ट नहीं होता। दो आदमी बैठे हैं-बातचीत शुरू की, उठे और बात समाप्त हो गई। कोई भी कष्ट नहीं होता। कुछ भी करना नहीं पड़ता। बस, केवल इतना करना पड़ता है-एक जीभ इधर चलती है, दूसरी जीभ सामने चलती है। तो केवल जीभ को ही चलाना पड़ता है, जीभ को ही व्यायाम देना पड़ता है। स्वर-यंत्र को, कंठनली को ही व्यायाम देना पड़ता है, स्वर-स्थानों को व्यायाम देना पड़ता है और कुछ भी नहीं करना होता। प्रयोग में तो बहुत खपना पड़ता है। प्रयोग की बात कठिन होती है। बातचीत और वाचिक विनिमय की बात सरल होती है। यह प्रायोगिक बात है, परिवर्तन की बात है। पूर्णता की दिशा में प्रस्थान करने की बात ही प्रायोगिक बात है, इसके बिना। प्रयोग के बिना हमारा प्रस्थान नहीं हो सकता। हमारी चेतना तीन कोणों में बराबर काम कर रही है। एक चेतना का वह कोण है जहां आदमी रोता है, विलाप करता है, दु:ख का अनुभव करता है। दूसरा कोण है-जहां आदमी प्रसन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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