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___ मैं कुछ होना चाहता हूं सीढ़ियां आरोहण का माध्यम है। माध्यम अन्तत: माध्यम ही होता है। कोई भी एक माध्यम कभी सार्वभौम नहीं हो सकता। वह सार्वदेशिक और सार्वकालिक भी नहीं हो सकता।
तर्क और बुद्धि आरोहण के माध्यम हैं। उनके सहारे हम आरोहण कर सकते हैं। हम चेतना की कई मंजिलों को, कई स्तरों को उनके माध्यम से पार कर सकते हैं। किन्तु उनके सहारे हम अन्तिम लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकते। यह संभव नहीं हो सकता। जैसे-जैसे हम ऊपर चढ़ेंगे, तर्क और बुद्धि-दोनों कृतकार्य होकर नीचे ही रह जाएंगे। इसका स्पष्ट अनुमान हमें हो जाएगा। जो व्यक्ति अनुभव की चेतना को विस्मृत कर केवल तर्क और बुद्धि की चेतना के सहारे ऊपर जाता है, वह कुछ दूरी को पार अवश्य कर सकता है, पर मूल को स्पर्श नहीं कर पाता, ताला खोल नहीं पाता। चेतना का वह ताला अनुभव की चाबियों से खुलता है।
हमारे समक्ष दो स्थितियां हैं। एक है तर्क और बुद्धि के विकास की और दूसरी है अन्तरप्रज्ञा के विकास की। ध्यान के बिना अन्तरप्रज्ञा या अन्तर्वृत्ति का विकास नहीं हो सकता। अन्तर्वृत्ति के विकास के बिना सही अर्थ में दर्शन का विकास नहीं हो सकता। आज की शिक्षण-संस्थाओं के दर्शन विभाग केवल तर्क और बुद्धि को तीखा बनाने वाले विभाग हैं। बुद्धि का काम है-स्मृति और तर्क को तीक्ष्ण बना देना। शस्त्र को तीक्ष्ण बनाना एक बात है और तीखे शस्त्र का प्रयोग कब, कहां करना है, यह दूसरी बात है। शस्त्र की महत्ता उपयोग पर निर्भर होती है। तीखे शस्त्र से ऑपरशन भी किया जा सकता है और दूसरे का प्राण-हरण भी किया जा सकता हैं । तीखे शस्त्र से उबारा जा सकता है और मारा भी जा सकता है। यहां आदमी के सामने दो स्थितियां आ जाती हैं। उसने शस्त्र की धार को तेज किया पर उपयोग की चेतना में परिवर्तन नहीं आया तो वह शस्त्र घातक बन जाता है, मारक बन जाता है। शस्त्र-निर्माण का समूचा इतिहास इस बात का साक्षी है कि मनुष्य का कोरा ज्ञान, कोरी शस्त्र की चेतना उसको विनाश के कगार पर ले जाकर खड़ा कर देती है। जब तक आदमी में प्रत्याख्यान परिज्ञा, छोड़ने की चेतना का जागरण नहीं होता. संयम की चेतना नहीं जागती तब तक वह विनाश से बच नहीं सकता। इसलिए दर्शन के साथ दोनों बातें जुड़ी होंगी-तार्किक चेतना और अनुभव की
चेतना। वह दर्शन नहीं हो सकता जो केवल बौद्धिक और तार्किक चेतना का विकास करता है। वही दर्शन दर्शन हो सकता है जो बौद्धिक और तार्किक चेतना के विकास के साथ-साथ दोनों के द्वारा उत्पन्न परिणामों पर नियंत्रण रखने की क्षमता का विकास करता है। ऐसा होने पर ही हमारी चेतना के विकास की सार्थकता है।
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