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मैं कुछ होना चाहता हूं को सिद्ध करने के लिए दरवाजा खटखटा रहा है तो दूसरा वर्ग उसी निष्ठा और पराक्रम से आत्मा को असिद्ध करने के लिए दरवाजा खटखटा रहा है। यह चल रहा है और बुद्धि के साम्राज्य में यह अनन्त काल तक चलता रहेगा। यदि तर्क न हो तो सम्प्रदाय टिक नहीं सकते। यदि तर्क न हो तो संघर्ष और लड़ाइयां चल नहीं सकतीं। लड़ाइयों का चलना जरूरी होता है। समाज हो और लड़ाई न हो तो वह कैसा समाज! लड़ाइयों के आधार पर बहुत सारे निकम्मे लोग भी काम के बन जाते हैं। वे लड़ाई के काम में लग जाते हैं। बहुत सारे लोग लड़ाइयों के आधार पर अपनी जीविका चला रहे हैं। दो व्यक्तियों को आपस में भिड़ा देते हैं और अपनी जीविका कमा लेते हैं। कुछ लोग कहते हैं-इन दो की लड़ाई मिट सकती है, पर बिचौले मिटाना नहीं चाहते। अगर मिट जाए तो उनकी रोजी-रोटी बन्द हो जाए। इस आधार पर हजारों वकील बेकार हो जाते हैं। यह सारा तर्क का चमत्कार है। इसे हम बेकार कैसे माने?
बुद्धि का क्रीड़ा-प्रांगण बहुत विशाल है। जितने खिलाड़ी ओलम्पिक में इकट्ठे नहीं होते उनसे हजार गुना खिलाड़ी बुद्धि के क्रीड़ा-प्रांगण में एकत्रित होते हैं और खेल खेलते हैं।
एक होता है गुरु और एक होता है शिष्य। शिष्य गुरु का होता है। गुरु को स्वीकार करना दुनिया का सबसे बड़ा स्वीकार है। मनुष्य अपने माता-पिता और पत्नी की बात को ठुकरा सकता है, किन्तु गुरु की बात को ठुकराना नहीं चाहता। गुरु देवता होता है। गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और भगवान कहा गया। गुरु को सब कुछ कहा गया। ऐसी स्थिति में उनकी बात को कैसे ठुकराया जा सकता है? परन्तु जब तर्क बीच में आता है तब आदमी गुरु की बात को भी ठुकरा देता है।
एक कहानी है।
गुरु और शिष्य दोनों सो रहे थे। वर्षा का मौसम था। गुरु ने करवट बदलकर शिष्य से कहा-बाहर जाकर देखो कि वर्षा आ रही है या रुक गई है? शिष्य आलसी थी। उठने की इच्छा नहीं थी। उसने तर्क का प्रयोग करते हुए कहा-गुरुदेव अभी-अभी यह कुत्ता बाहर से आया है। आप इसके शरीर पर हाथ फेर कर देख लें। यदि इसका शरीर भीगा हुआ है तो वर्षा आ रही है, यदि वह सूखा हो तो वर्षा बन्द हो गई है। सरल उपाय है।
थोड़ी देर बाद गुरु ने कहा-शिष्य रात बहुत चली गई है। नींद नहीं ले पा रहा हूं। दीये का प्रकाश सीधा मुंह पर पड़ रहा है। उठो, दीये को बुझा दो। शिष्य बोला-गुरुदेव ! दीया क्यों बुझाएं, आप अपने मुंह पर कपड़ा ओढ़ ले, प्रकाश नहीं दिखेगा, नींद आ जाएगी।
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