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ध्यान एक परम पुरुषार्थ
एक था समाजशास्त्री और दूसरा अर्थशास्त्री। दोनों उपस्थित हुए और चिन्ता के स्वर में बोले-'धर्म ने पहले ही देश को निठल्ला बना दिया है। शताब्दियों से धर्म करने वाले लोग निकम्मे होकर भाग्य के भरोसे बैठे हैं। वे कोई पुरुषार्थ नहीं करते, श्रम नहीं करते। कतराते हैं श्रम से, काम करने से। जैसा भाग्य में लिखा है वैसा हो जाएगा, यह मानकर चल रहे हैं। उनका सारा पराक्रम अस्त हो गया है। उनके पुरुषार्थ का प्रदीप प्राय: बुझ गया है। धर्म ने यह स्थिति पैदा कर दी और अब यह ध्यान का प्रचार और चल पड़ा। लोग इससे और अधिक निठल्ले बन जाएंगे। जैसे-जैसे ध्यान के प्रचार का विकास होगा, लोग आंखें मूंद कर बैठ जाएंगे, निकम्मे हो जाएंगे। जो आंख मूंद कर बैठता है उसे शांति का अनुभव होता है, आराम मिलता है, आनन्द की अनुभूति होती है। यह सारा निठल्लापन पैदा करता है। जैसे-जैसे यह बढ़ेगा वैसे-वैसे गरीबी बढ़ेगी. समस्याएं बढ़ेगी। यह राष्ट्र और समाज के लिए कल्याणकारी नहीं होगा, हितकारी नहीं होगा। इस प्रवृत्ति को रोक दिया जाना चाहिए।
मैंने सुना। उनकी चिन्ता को देखते हुए लगता था कि वे कोई कृत्रिम बात नहीं कह रहे हैं। वे एक सचाई का अनुभव कर रहे हैं और उसको मानसिक व्यथा के साथ प्रकट कर रहे हैं । इस स्थिति में ध्यान की प्रक्रिया को चलाना एक प्रश्न है। यह प्रश्न उन दोनों व्यक्तियों के मन का ही नहीं है, किसी भी समझदार व्यक्ति के मन में यह उभर सकता है। क्या घंटों तक, दिनों तक आंखें बन्द कर निठल्ला होकर बैठे रहना, कुछ भी उत्पादक श्रम नहीं करना, इस गरीब राष्ट्र के प्रति अन्याय नहीं है? क्या अध्यात्म की चर्चाओं से राष्ट्र का हित हो सकता है? क्या इससे समाज का हित हो सकता है?
__इस प्रश्न का उभरना सहज है। यह प्रश्न तब तक उभरता रहेगा जब तक व्यक्ति का दृष्टिकोण एकांगी रहेगा। वे सारे प्रश्न और सारी समस्याएं जो यथार्थ को छूती हैं या नहीं भी छतीं, इसीलिए जीती हैं कि वे सब टूटे हुए प्रश्न हैं, टूटी हुई समस्याएं हैं। ये प्रश्न जुड़े हुए नहीं हैं। ये समस्याएं जुड़ी हुई नहीं हैं।
विज्ञान यह मानता था कि जीवशास्त्र, वनस्पतिशास्त्र, रसायनशास्त्र, पर्यावरणशास्त्र-ये सब पृथक-पृथक हैं। यही मानकर सब शास्त्रों का स्वतन्त्र रूप से अध्ययन किया जाता था। इस अध्ययन के आधार पर जो निर्णय लिए गए, वे
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