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ध्यान एक परम पुरुषार्थ
है । ज्योतिष भाग्य को बदलने का सिद्धान्त है । ज्योतिष के द्वारा जाना जा सकता है और फिर भाग्य को बदला जा सकता है, ग्रह के परिणाम में परिवर्तन लाया जा सकता है। पुरुषार्थ का सिद्धान्त इसीलिए महत्त्वपूर्ण है कि उसके द्वारा भाग्य की प्रत्येक रेखा को बदला जा सकता है, रूपान्तरित किया जा सकता है। ज्योतिष ज्ञापक है, कारक नहीं है । वह बतलाने वाला है कि अमुक घटना घटित होने वाली है । जान लेने पर ज्ञात हो जाने पर, उचित उपाय करना हमारे हाथ में है ! जैसे-जैसे ध्यान का विकास होता है, वैसे-वैसे हमारी प्रज्ञा निर्मल होती है, शक्ति जागती है और पुरुषार्थ प्रबल होता है, ध्यान की साधना से आदमी निठल्ला नहीं बनता किन्तु भाग्य को बदलने वाला बन जाता है। वह राम भरोसे या भाग्य भरोसे बैठने वाला नहीं बनता, किन्तु वह बदलने का दायित्व अपने पर ओढ़ लेता है और उस पुरुषार्थ में सर्वात्मना जुट जाता है। वह यह मानता है मैं भाग्य को बदल सकता हूं, बदलने वाला हूं, बदलने की चाबियां मुझे प्राप्त हो गई हैं ।
जिस व्यक्ति ने चैतन्य - केन्द्रों पर ध्यान किया है, मंत्रों का ध्यान किया है, रंगों का ध्यान किया है, वह अपने शारीरिक स्वास्थ्य को भी बदल सकता है, मानसिक आघातों को भी बदल सकता है, मानसिक ग्रन्थियों को भी खोल सकता है। ऐसी ग्रन्थियां होती हैं, जिनको खोलना दुष्कर और असंभव लगता है, वे ग्रन्थियां ध्यान के द्वारा खुल जाती हैं। वह व्यक्ति ग्रहों के प्रभावों को भी बदल सकता है। अध्यात्म का पूरा ज्योतिष है । उसमें यह जानने को मिलता है कि किस महीने में, किस राशि में, किस चैतन्य - केन्द्र पर ध्यान करना चाहिए और क्यों करना चाहिए। अप्रैल महीने में किस केन्द्र पर, किस ग्रह का ध्यान शुभ होता है और मई महीने में कौन-सा शुभ होता है? अमुक शक्ति के विकास के लिए कब, कहां ध्यान केन्द्रित करना है- ये सब तथ्य अध्यात्म ज्योतिष की परिधि में आते हैं । यह शक्ति जागरण का पूरा विज्ञान है ।
ध्यान करने वाला निकम्मा नहीं होता, निठल्ला नहीं होता, आलसी नहीं होता, अकर्मण्य नहीं होता। उसमें एक आग प्रज्वलित हो जाती है, एक ज्योति जल जाती है। उसके आलोक में वह सही दिशा में देख सकता है. सही कार्य में अपनी शक्ति का नियोजन कर सकता है। शक्ति का पूरा नियोजन हो और फलितार्थ आए छोटा-सा उसे कर्मण्यता नहीं कहा जा सकता । कर्मण्यता यह है कि कम श्रम में बहुत बड़ी निष्पत्ति हो । ध्यान करने वाले व्यक्ति में इस कर्मण्यता का जागरण हो
ता है। वह उतना ही श्रम करता है जितना अपने लिए, परिवार के लिए, समाज के लिए और राष्ट्र के लिए आवश्यक होता है। वह अनावश्यक श्रम नहीं करेगा । वह अपना श्रम ऐसी गैसों के उत्पादन में नहीं लगायेगा जिससे सात मिनट में पूरी
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