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मैं मनुष्य हूं (१) शब्द के अर्थ का उपक्रमण और अपक्रमण होता रहता है। अर्थ का परिवर्तन होता है। अर्थ का विकास और हास होता है। आज धर्म शब्द का अर्थ कुछ बदल गया है। आज का आदमी धर्म शब्द की भाषा को कम समझने लगा है और वह शब्द कुछ रूढ़ियों के साथ जुड़ गया है। यदि हम नई भाषा में इस पर चिन्तन करें तो धर्म के स्थान पर हमें एक दूसरा शब्द खोजना होगा और वह शब्द हो सकता है-विज्ञान । मनुष्य और पशु में जो अन्तर है वह विज्ञान का अन्तर है। पशु में विज्ञान नहीं है। विवेक की चेतना नहीं है। मनुष्य में विज्ञान है, विवेक की चेतना है। यही पशु और मनुष्य में एक मौलिक अन्तर है। पशु प्राणशक्ति का अधिकारी है, उसमें प्राणशक्ति है, पर प्राणशक्ति का विकास वह नहीं कर सकता। आज तक वह नहीं कर पाया। एक पशु हजार वर्ष से बराबर भार ढो रहा है। वह बैलगाड़ी से जुता हुआ है, भार ढो रहा है किन्तु उसकी चेतना में कोई परिवर्तन नहीं आया। न यह प्रश्न उठा कि मुझ पर भार क्यों लादा जा रहा है? न यह प्रश्न उठा कि यह भार छूट ना चाहिए। न उसने कोई क्रान्ति की कि मुझे भार-मुक्ति मिलनी चाहिए। यदि मनुष्य की चेतना पशु में होती और पशु विद्रोह करते, क्रान्ति करते तो मनुष्य के सामने समस्याएं पैदा हो जातीं। पर बेचारा गाड़ी से जुता बैल आज भी मार खा रहा है और वैसे ही जुता हुआ है जैसे पुराने जमाने में था। कोल्हू से जुता हुआ बैल आंखों पर पट्टी बांधे हुए वैसे ही चक्कर लगा रहा है जैसे हजार वर्ष पहले लगा रहा था। कोई विकास नहीं हुआ। न चेतना का विकास हआ और न प्राणशक्ति का विकास हुआ। मनुष्य ने प्राणशक्ति का भी विकास किया और विवेकशक्ति का भी विकास किया। दो शताब्दियों पहले जो चिंतन था, आज वह चिंतन बहुत विकसित हो गया-सामाजिक समस्याओं के संदर्भ में। जीवन-प्रणाली और राजनीति के क्षेत्र में मनुष्य का प्रत्येक चरण आगे से आगे विकास करता चला जा रहा है। इसका कारण है कि उसमें विवेक की शक्ति है, विज्ञान की शक्ति है।
कोरा जीवन होना बड़ी बात तो है। अजीवन से जीवन होना, अप्राणी से प्राणी होना एक विकास है, बड़ी बात है किन्तु केवल जीवन होना, केवल प्राणी होना उतनी बड़ी उपलब्धि नहीं है जितनी बड़ी उपलब्धि है जीवन के साथ-साथ विज्ञान की चेतना का विकास होना। प्राणशक्ति के साथ-साथ चेतना की शक्ति का विकास होना और नये आयामों का उद्घाटन होना, नई दिशाओं का प्रस्फुट न होना, यह बहुत बड़ी बात है। मैं मनुष्य हूं, इसमें ये दोनों बातें समायी हुई हैं। मैं मनुष्य हूं इसलिए प्राणशक्ति का भी विकास कर सकता हूं, प्राण के नये आयाम प्रस्फुटित हो सकते हैं और चेतना की नई दिशाएं भी उद्घाटित हो सकती हैं।
हमारे प्राण की अनेक धाराएं हैं, शक्तियां हैं। उनमें चार मुख्य होती
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