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मानसिक अनुशासन के सूत्र
राक्षसों के सदृश हैं। इन राक्षसों के साथ लड़ने से शक्ति क्षीण होगी। इन राक्षसों
और प्रेतों को आने दें। उनका विरोध न करें। आप अपना काम करते रहें। एक दिन ऐसा आएगा कि बरे विचार या विकल्प रूपी राक्षसों की शक्ति क्षीण हो जाएगी
और वे बेचारे शक्ति-शून्यता का अनुभव करने लग जाएंगे। इस प्रक्रिया में श्वास-दर्शन शक्तिशाली होता जाएगा। वे राक्षस मर जायेंगे और श्वास-दर्शन चिरंजीवी बनता जाएगा।
हमें श्वास-दर्शन की प्रक्रिया को भी सही संदर्भ में समझना होगा। गलत-विधि निराशा पैदा करती है। विधि-पूर्वक यदि श्वास-दर्शन, चैतन्य-केन्द्र दर्शन, शरीरदर्शन किया जाए तो एकाग्रता पृष्ट होती जाती है और तब भी भीतर में उभरने वाली वृत्तियां, चंचलता, बुरे विचार, बुरे भाव इन सब की शक्ति क्षीण हो जाती है और हमारी विधायक शक्ति का विकास होता है और ऋणात्मक या निषेधात्मक शक्ति कमजोर हो जाती है। आप देखें, मन सबके पास है। फिर भी एक व्यक्ति अच्छा और एक व्यक्ति बुरा, यह क्यों? एक घंटा हम अच्छे विचार करते हैं और एक घंटा बुरे विचार करते हैं, यह क्यों? यह अन्तर क्यों? काल और व्यक्ति का यह अन्तर सूचित करता है कि मन का कोई दोष नहीं है। हमने मन को भयप्रूफ नहीं बनाया। उसके संकल्प और एकाग्रता को हमने पुष्ट नहीं किया। उसकी शक्ति का विकास नहीं किया। साधना के तीन बल हैं-मन का बल, वचन का बल और शरीर का बल। जैसे-जैसे मन का बल बढ़ता है, शक्तियां विकसित होती जाती हैं और बाहर का प्रभाव कम होता जाता है। एकाग्रता और संकल्प-शक्ति का विकास होने पर
० पुरानी आदतें बदलती हैं, नई आदतों का निर्माण होता है। ० पुरानी आस्थाएं बदलती हैं, नई आस्थाएं जन्म लेती हैं। 0 पुराने संस्कार छूटते हैं, नए संस्कार निर्मित होते हैं।
जैसे-जैसे संकल्प-शक्ति बढ़ती है, वैसे-वैसे एकाग्रता का विकास होता है या जैसे-जैसे एकाग्रता बढ़ती है, वैसे-वैसे संकल्प-शक्ति का विकास होता है। जैसे-जैसे संकल्प शक्ति बढ़ती है, वैसे-वैसे मन की शक्ति का विकास होता है। मन तब पूर्ण सुरक्षित हो जाता है उसका कवच वज्रमय बन जाता है, कोई उसे तोड़ नहीं सकता। तब बाहर से भी मन को प्रभावित नहीं किया जा सकता और भीतर से भी उसको प्रभावित नहीं किया जा सकता। मन उन भीतरी झरनों को कह देता है-अपना पानी और कहीं से बहायें। अब मैं आपके पानी को स्वीकार करने की स्थिति में नहीं हैं। बाहर के निमित्तों को भी वह अस्वीकृति दे देता है। तब वह निश्चिन्त होकर अपना काम करने लग जाता है और साधक चैतन्य के महासागर में डुबकियां लेते-लेते नहीं अघाता।
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