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शारीरिक अनुशासन के सूत्र में जमे हुए मलों को दूर नहीं किया जाएगा तब तक प्रकाश नहीं होगा। यदि प्रकाश करना है तो मलों को साफ करना होगा। यदि आलोक करना है तो धुंधलापन मिटाना होगा। कांच जब धुंधला हो जाता है तब वह प्रतिबिम्ब को पकड़ नहीं सकता। कांच प्रतिबिम्ब को प्रकट करता है। पर यदि मैला है, तो प्रतिबिम्ब प्रकट नहीं होगा। क्या अन्धे कांच से लालटेन का प्रकाश बाहर आ पाएगा? कभी नहीं। कांच को साफ करना ही होगा। सफाई करने में कष्ट होता होगा पर सफाई का उद्देश्य कष्ट देना नहीं होता। कष्ट देना और कष्ट होना, दो भिन्न-भिन्न बाते हैं। ये दोनों एक नहीं हैं।
काया को साधने में कष्ट हो सकता है, पर हमारा उद्देश्य शरीर को कष्ट देना नहीं है। कष्ट देने का उद्देश्य हो ही कैसे सकता है? साधना का और धर्म का एकमात्र उद्देश्य है-दु:ख-मुक्ति, सभी दु:खों से छुटकारा पाना । तो क्या जो दुःख से छुटकारा दिलाता है, वह दुःख देने वाला हो सकता है? दुःख से दुःख ही मिलता है। दु:ख से सुख नहीं मिलता। जिसका लक्ष्य है दु:ख पाना और जो दु:ख पाने के उद्देश्य से अपने आपको दु:खी बनाता है, वह सदा सु:खी ही बना रहेगा। भगवान महावीर ने कहा-'दुःखी दुःख को प्राप्त होता है। सुखी कभी दुःख को प्राप्त नहीं होता।' हम इस तथ्य को और गहरे उतरकर समझें। काया को साधने के लिए उसे तपाना पड़ता है। खदान से सोना निकलता है। पर सोने की ईंटे उससे सीधी प्राप्त नहीं होती। कितनी तेज आंच में से उस सोने के पत्थर को गुजरना होता है कि जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह इतनी तेज आंच सहता है, इसीलिए मिट्टी में से चमकता हुआ पीला सोना बाहर निकल आता है। यदि सोना कहे-मुझे सताओ मत। मुझे जलाओ मत। क्या वह कभी सोना बन पाएगा? वह मिट्टी ही बना रहेगा। यदि सोने को सोना बनना है, सोने के रूप में, चमकते पीले रूप में उसे प्रकट होना है तो तेज आंच से गुजरना ही होगा। सोने को तेज आंच से गुजरने का अर्थ उसका सताना नहीं है। सारा प्रयत्न उसको चमकाने के लिए होता है। उद्देश्य भिन्न है। एक उद्देश्य होता है चमकाने का और एक उद्देश्य होता है, सताने का। गुरु अपने शिष्य को प्रताड़ना देता है, उसे मिटाने के लिए नहीं, किन्तु उसे चमकाने के लिए। मिटाने का उद्देश्य होता है वहां सताना होता है और जहां चमकाने का उद्देश्य होता है वहां सिद्ध करना होता है।
आसन इसलिए किए जाते हैं कि शरीर में जमे हुए मैल निकल जाएं, शरीर सिद्ध हो जाए, शरीर साध लिया जाए।
कुछेक लोग कहते हैं कि श्वास फेफड़ों में पूरा पहुंचता ही नहीं। कैसे पहुंचे? बीच में कितने अवरोध पैदा कर रखे हैं? इतने मल और दोष जमा हैं कि श्वास को आगे जाने का अवकाश ही नहीं मिल पाता। यदि किसी वैद्य को चिकित्सा
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