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मैं कुछ होना चाहता हूं परीक्षण कर उनको नम्बर दे रहा था। एक विद्यार्थी ने कोरा कागज अध्यापक के हाथ में दे दिया। अध्यापक ने चिढ़ते हुए कहा-यह क्या! अभी तक एक भी चित्र नहीं बना पाए?
विद्यार्थी बोला-मैंने तीनों चित्र बनाए थे। कहां है चित्र ? पृष्ठ खाली पड़ा है-अध्यापक ने कहा। विद्यार्थी बोला-चूहा बनाया था किन्तु बिल्ली उसे खा गई। अरे, बिल्ली कहां है? कुत्ता बिल्ली को खा गया। अच्छा, तो बताओ, कुत्ता कहां गया?
एक बिल्ली से उसका पेट नहीं भरा तो वह दुसरी बिल्ली की खोज में चला गया। तीनों चले गए। मेरा कागज कोरा ही रह गया।
यह मन कोरा कागज है। भीतर में बैठा कोई विद्यार्थी उस पर चूहे का चित्र बनाता है तो फिर बिल्ली आ जाती है, और बिल्ली का बनाता है तो कत्ता आ जाता है और कुत्ता भी अधिक समय तक नहीं टिक पाता। वह भी किसी की खोज में चला जाता है। मन कोरा ही रह जाता है। चित्र बनते जाते हैं और मिटते जाते हैं। हजारों चित्र बनते हैं और चले जाते हैं। वह अन्त में रहता है कोरा का कोरा। ऐसी स्थिति में उस पर चित्र बनाने का अर्थ ही क्या होता है? उससे लड़ने का प्रयोजन ही क्या है? जिस पर कुछ भी टिके नहीं, उससे क्यों लड़ा जाए? हमें उससे लड़ना है जहां से ये सारे चित्र उभर रहे हैं। कल्पना और स्मृतियों के चित्र, भावनाओं के चित्र, भलाई और बुराई के चित्र-ये सारे चित्र भीतर से आ रहे हैं। साधना करने वाले व्यक्ति को परेशानी इसलिए नहीं होती कि वह स्थूल जगत् की सीमा में नहीं जीता।
लोग पूछते हैं, जानना चाहते हैं कि क्या हमारा भी कोई सूक्ष्म जगत् है? क्या हमारा कोई सूक्ष्म अस्तित्व है? क्या इस दुनिया से परे भी कोई दुनिया है? क्या मरने के बाद भी कुछ अस्तित्व रहता है?
मरने की बात क्यों सोचते हो? दूर जाने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हारे भीतर बहुत बड़ी दुनिया है। मरने के बाद क्या होगा यह प्रश्न और इसका उत्तर भी तुम्हारे भीतर लिखा हुआ है। तुम भीतर की दुनिया को देखो, सारे प्रश्न समाप्त हो जायेंगे। आत्मा और परमात्मा के प्रश्न, पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के प्रश्न उन लोगों ने पूछे जो स्थूल शरीर की सीमा पर सिमटे रहे। जिन लोगों ने स्थल शरीर की सीमा को पार कर दिया उनके लिए ये प्रश्न समाहित हो जाते हैं। आत्मा और परमात्मा को जानने का उपाय स्थूल शरीर और मस्तिष्क में नहीं है। यह उपाय शरीर और मस्तिष्क की सीमा से परे है। जिसने इस सीमा को पार कर
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