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मैं कुछ
उस भाई का तर्क ठीक है कि शरीर गंदा है । वह बाहर के पदार्थों से भी गंदा है और आसक्ति के द्वारा जमने वाले मलों से भी गन्दा बनता है । उस गन्दगी को साफ़ करने के लिए शरीर - प्रेक्षा बहुत बड़ा साधन है। हम यह नहीं कह सकते हैं कि शरीर गन्दा ही है या शरीर गन्दा नहीं है । शरीर गन्दा है, यह भी सच है और शरीर शुद्ध है, यह भी सच है । यदि शरीर कोरा गंदा होता तो प्रेक्षा- ध्यान में शरीर को देखने की बात नहीं होती । शरीर गंदा न हो तो उसकी सफाई की बात भी प्राप्त नहीं होती । दोनों कथन सापेक्ष हैं
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होना चाहता हूं
गुरु जा रहे थे। साथ में दस-बीस शिष्य थे । गुरु को प्यास लगी । शिष्य दौड़ा-दौड़ा गया। पानी भर लाया। गुरु ने देखा, कहा, अरे, इतना गन्दा पानी ! शिष्य बोला- ठहरें, दस मिनिट बाद साफ पानी ले आऊंगा। दस मिनिट बीते । साफ पानी ले आए। गुरु बोले- अरे, पहले इतना गंदा पानी और अब इतना साफ पानी ! शिष्य बोला - महाराज ! नदी से पहले गाड़ियों का समूह गुजरा था। पानी गुदला गया था। अब वह पानी धीरे-धीरे साफ हुआ है, नितर गया है । सारा मल नीचे जम गया है। गुरु ने कहा- हमारी भी यही स्थिति है । जब आसक्ति की गाड़ियां गुजरती हैं तब चेतना गन्दी हो जाती है । जब आसक्ति मिटती है तब चेतना शुद्ध हो जाती है, निर्मल हो जाती है । चेतना ही निर्मल नहीं होती, साथ-साथ शरीर भी निर्मल होता है ।
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दो दृष्टिकोण हैं, एक है शरीर को सताना और दूसरा है शरीर को साधना । एक है शरीर का गन्दा होना और एक है शरीर का निर्मल होना । यदि हमारा दृष्टिकोण बदल जाए, चश्मा बदल जाए तो फिर गंदे शरीर को छोड़कर पवित्र चेतना की दिशा में प्रस्थान हो सकता है। यदि दृष्टिकोण बदल जाए तो शरीर को सताने की बात छोड़कर, काया को साधने की दिशा में प्रस्थान हो सकता है । यह हैं हमारी कायसिद्धि का उपाय और प्रयोजन ।
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