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वाचिक अनुशासन के सूत्र
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इनसे उत्पन्न तरंगें ग्रन्थिसंस्थान को प्रभावित करती हैं, अन्त:स्रावी ग्रंन्थियों के स्राव को संतुलित करती है। ग्रन्थियों का स्राव 'इ' के उच्चारण से संतुलित हो जाता है। मस्तिष्क अस्त-व्यस्त होता है। एक शब्द का जप शुरू होता है और मस्तिष्क व्यवस्थित हो जाता है।
ध्यान के साथ-साथ जप का भी विशेष प्रयोग चल सकता है। उससे शांति की तंरगें उत्पन्न होती हैं, एकाग्रता का विकास होता है। कुछेक अक्षरों का जाप ठंडक पैदा करता है और कुछेक अक्षरों का जाप गर्मी पैदा करती है। एक हजार बार “र'' का उच्चारण करें। तापमान बढ़ जाएगा। “र'' बीजाक्षर है। उसके परमाणु ऐसी तंरगें पैदा करते हैं जो तापकारक होती हैं। इसी प्रकार ठंड पैदा करने वाले बीजाक्षर भी हैं। आकर्षण और वशीकरण करने वाले बीजाक्षर हैं। इनसे भिन्न-भिन्न प्रकार की तंरगें उत्पन्न होती हैं और अपना प्रभाव डालती हैं। तंरगों का प्रभाव आज छुपा हुआ नहीं है। आज यह प्रमाणित हो चुका है। हमारी सारी दुनिया तरंगों की दुनिया है। यहां जो कुछ भी हो रहा है, वह सारा तरंगों के द्वारा हो रहा है। चिन्तन की तरंग, भाषा की तरंग, शरीर से निरन्तर निकलने वाली तरंग आदि-आदि अनेक प्रकार की तरंगें हैं। यह दुनिया नाना प्रकार की ऊमियों
और तरंगों से आकुल-व्याकुल है। सब कुछ तरंगमय है। तरंगातीत कुछ भी नहीं है। तरंगातीत वही हो सकता है जो भाषातीत हो जाता है, भाषा से परे चला जाता है। जो व्यक्ति भाषातीत, विकल्पातीत और चिन्तनातीत नहीं होता वह कभी तरंगातीत नहीं हो सकता।
ध्यान का प्रयोग तरंगातीत जगत् का अनुभव करने के लिए करते हैं। किन्तु तरंगों के जगत् से परे जाना, गुरुत्वाकर्षण को तोड़कर अन्तरिक्ष में जाना कोई साधारण बात नहीं है, बहुत ही कठिन बात है। मनुष्य पुरुषार्थी है। उसमें असीम मनोबल है। उसमें असीम संकल्प है। उसकी चेतना प्रबल है। उसने गुरुत्वाकर्षण को भी बेध डाला है। वह गुरुत्वाकर्षण की सीमा को पार कर अन्तरिक्ष यात्रा करने में पूर्ण सफल हुआ है। जब कोई व्यक्ति वैज्ञानिक पद्धति के आधार पर अन्तरिक्ष की यात्रा कर सकता है तो ध्यान के द्वारा तरंगातीत चेतना का अनुभव क्यों नहीं कर सकता? ऐसा संभव है। यह किया जा सकता है।
प्रश्न है वाणी की शक्ति का विकास कैसे हो? जब तक वाणी की अशुद्धि नहीं मिटती, उसके मल-दोष समाप्त नहीं होते, तब तक वाणी की शुद्धि नहीं हो सकती। उसकी अशुद्धि को मिटाने का एक उपाय है-'प्रलम्बनादाभ्यासाद् वाक्शुद्धिः'-प्रलंब नाद के अभ्यास से वाक्यशुद्धि होती है। ध्वनि प्रलंब है। मन के साथ, भावना के साथ संबंध स्थापित करने के लिए प्रलंबनाद का अभ्यास महत्त्वपूर्ण
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