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मैं कुछ होना चाहता हूं खाता है और इच्छावश कितना खाता है? आश्चर्य होगा यह जानकर कि मात्र आवश्यकतावश या उपयोगितावश खाने वाला, सौ में एक व्यक्ति भी मिल पाना कठिन है। इच्छा के कारण खाने वाले शत-प्रतिशत हैं। शरीर की मांग उतनी नहीं है, जितना आदमी खाता है।
बदलाई मौसम होती है। आकाश बादलों से आच्छन्न होता है। शीतल समीर बहता है। आदमी के मन में गर्म हलवा खाने की इच्छा पैदा हो जाती है और वह भर-पेट हलवा खाता है। मौसम ने इच्छा पैदा कर दी। उपयोगिता का प्रश्न गौण हो गया। आवश्यकता का कोई प्रयोजन ही नहीं रहा। अभी-अभी भोजन से निवृत्त हुए । बाजार में गए। कोई चीज सामने आई। खाने के लिए मन ललचाया। खा ली और जब तक बाजार में रहे, दो-चार बार और खा-पी लिया। क्या वह आवश्यकतावश खा रहा है या इच्छावश खा रहा है? खाने की आवश्यकता बहुत कम होती है। यदि आदमी आवश्यकतावश ही खाए तो आने वाली अनेक समस्याएं समाहित हो जाती हैं। आवश्यकता की पूर्ति के लिए खाने से आदमी दीर्घायु होता है, रोगों से बचता है और आनन्द से जीता है।
अनुशासन का एक क्रम है* इच्छा पर अनुशासन। * श्वास पर अनुशासन । * आहार पर अनुशासन। * भाषा पर अनुशासन । * शरीर पर अनुशासन। * मन पर अनुशासन। * इन्द्रियों पर अनुशासन। मैं इसी क्रम से मनोनुशासनम् की व्याख्या प्रस्तुत करना चाहूंगा।
पहले हम मन पर अनुशासन करने की बात न सोचें। पहले बीज से चलें। बीज है-इच्छा। फिर हम बेल पर, पत्तों और फूलों पर ध्यान दें। फिर अन्त में फल पर ध्यान दें। इसी क्रम से साधना चले और हमारा बोधपाठ भी चले। इस प्रकार चलने से मन पर अनुशासन करना कोई कठिन कार्य नहीं रहेगा।
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