Book Title: Main Kuch Hona Chahta Hu
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 38
________________ इन्द्रिय अनुशासन देखना । यही चेतना का स्वभाव है। केवल ज्ञाताभाव और केवल द्रष्टाभाव । चेतना की वह मूल प्रकृति है । अध्यात्म का व्यक्ति इस नियम के आधार पर चलेगा कि चेतना का व्यापार केवल इतना ही है। प्रियता और अप्रियता उसका काम नहीं है । प्रियता और अप्रियता - ये दो गंदी नालियां बाहर से आकर इनमें मिलती हैं। हमारी चेतना की शुद्ध धारा बहती है। उसके साथ कषाय की धारा मिल जाती है तब वह विशुद्ध नहीं रहती । तब इन्द्रिय का विषय केवल विषय नहीं रहता, वह विकार बन जाता है । जब विषय विकार बन जाता है तब रूप हमारे लिए केवल रूप नहीं रहता। वह प्रिय या अप्रिय बन जाता है । तब रस हमारे लिए केवल रस नहीं रहेगा । वह या तो स्वादिष्ट होगा या अस्वादिष्ट होगा । हमारी सारी दृष्टि चेतना की दृष्टि या ज्ञेय की दृष्टि न रहकर प्रियता या अप्रियता की दृष्टि बन जाती है। इस दृष्टि का फलित यह होता है कि व्यक्ति या तो किसी से प्रेम करने लगता है या किसी से घृणा करने लग जाता है। वह किसी को प्रिय और किसी को अप्रिय मानने लग जाता है । प्रियता इसलिए चलती है कि अप्रियता का अस्तित्व भी बराबर बना हुआ है। प्रेम इसलिए चलता है कि घृणा भी साथ-साथ चलती है। केवल प्रियता नहीं चल सकती । केवल अप्रियता नहीं चल सकती। केवल प्रेम नहीं चल सकता । केवल घृणा नहीं चल सकती। दोनों साथ-साथ चलते हैं । या तो दोनों रहेंगे या दोनों नहीं रहेंगे। एक कभी नहीं रह सकता। ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं है जो केवल प्रेम ही करता हो। ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं है जो केवल घृणा ही करता है। जो प्रेम करता है वह घृणा भी करता है। जो घृणा करता है वह प्रेम भी करता है I विषयों के प्रति सम्यग् योग का अर्थ है कि व्यक्ति ज्ञेय को ज्ञाता की दृष्टि से जाने। प्रियता या अप्रियता के भाव को निकाल दे । यह इन्द्रिय- शुद्धि का पहला उपाय है। इससे चेतना स्वच्छ रहेगी। गंदी नालियां उसमें नहीं मिलेंगी। वे दूर जायेंगी हो / विषयों के प्रति सम्यग् योग का अर्थ है कि व्यक्ति ज्ञेय को ज्ञाता की दृष्टि से जाने । प्रियता या अप्रियता के भाव को निकाल दे । यह इन्द्रिय- शुद्धि का पहला उपाय है। इससे चेतना स्वच्छ रहेगी। गंदी नालियां उसमें नहीं मिलेंगी। वे दूर हो जायेंगी । ३१ दूसरा उपाय है - प्रतिसंलीनता । व्यक्ति का अभ्यास है कि वह बाहर की ओर ज्यादा देखता है। व्यक्ति की सारी लीनता पदार्थ के प्रति है, बाहर की ओर है ।' बाहर के प्रति उसकी लीनता चरम सीमा तक पहुंच जाती है । वह जिधर देखने लग जाता है उधर ही देखता रहता है । यह बच्चे की प्रवृत्ति है कि वह एकटक लम्बे समय तक एक बिन्दु पर देखता ही रह जाता है I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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