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फोसणपरूवणा
फोसणागमो
१३३. फोसगाणु ० दुवि० – ओघे० आदे० | ओघे अदृण्णं क० सव्वप० खेत्तभंगो । [ एवं ] तिरिक्खोघं एइंदि० - पंचका० - कायजोगि०-ओरालि०-ओरालि०मि०कम्म० - ० - कोधादि ०४ - मदि ० - सुद० - असंज० - अचक्खु ० - तिणिले ० - भवसि ०अन्भवसि० - मिच्छा० - असण्णि० - आहार० - अणाहारगति ।
१३४. रहगेसु सत्तण्णं क० भुज० - अप्प० - अवट्ठि० छच्चोद्द ० । आउ० खेत्तभंगो । एवं अप्पप्पणो फोसणं णेदव्वं । सव्वपंचिं० तिरि० सत्तणं' क० भुज०अप्प ० - अवडि० लो० असंखें० सव्वलो० । आउ • खेत्तभंगो । एवं मणुस - सव्वअपजत्ताणं तसाणं सव्व विगलिंदियाणं बादर - पुढ० - आउ० तेउ०- वाउ० पञ्जत्ता० बादरपत्ते ० पञ्जत्ताणं च । मणुसेसु अट्टण्णं क० अवत्त० खेत ० । बादरवाउ० पञ्जत्त •
भुजगार पदकी अपेक्षा सब लोकप्रमाण
क्षेत्र होने से इनमें यहाँ सम्भव सात कर्मों के क्षेत्र कहा है ।
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स्पर्शनानुगम
१३३. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे आठ कर्मों के सब पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यन, एकेन्द्रिय, पाँचों स्थावरकाय, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्र काययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसक वेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी श्र ताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवों में जानना चाहिए ।
विशेषार्थ — ओघ से सात कर्मों के अवक्तव्यपदके सिवा आठों कर्मों के सब पदों की अपेक्षा क्षेत्र सब लोकप्रमाण तथा सात कर्मोंके अवक्तव्यपदकी अपेक्षा क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण बतला आये हैं, वही यहाँ स्पर्शन भी प्राप्त होता है, अतः इसे क्षेत्रके समान जानने की सूचना की है । यहाँ सामान्य तिर्यन आदि अन्य जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए ऐसा कहनेका अभिप्राय यह है कि इनका स्पर्शन भी क्षेत्रके समान जानना चाहिए ।
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१३४. नारकियों में सात कर्मों के भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंने त्रसनाली के कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आयुकर्मका भंग क्षेत्रके समान है । इसी प्रकार सर्वत्र अपना-अपना स्पर्शन जानना चाहिए। सब पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में सात कर्मों के भुजगार अल्पतर और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । आयुकर्मका भङ्ग क्षेत्रके समान है । इसी प्रकार मनुष्य, सब अपर्याप्त, त्रस अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीवों में जानना चाहिए। मात्र मनुष्यों में आठों कर्मो के अवक्तव्यपदका भङ्ग क्षेत्रके समान है । तथा बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंमें सात कर्मों के तीन पदों के
१. ता० प्रतौ सव्वपंचि ०
सत्तण्णं इति पाठः ।
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