Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 306
________________ उत्तरपगदिपदेस बंधे सण्णियासं २८३ अप्पसत्थ०-तस०४-थिराथिर - सुभासुभ- दूर्भाग- दुस्सर- अणादे० - अजस० - णिमि० सिया० संदिभागूणं ० | देवगदि वे उच्चि ० - आहार० समचद् ० - दोअंगो० - वञ्जरि० देवाणु०पसत्थ०-सुभग०-सुस्सर-आदें० - तित्थ० सिया० तं तु ० संखेजदिभागणं ० | णीचा० ओघं । ४४९. मायकसाईसु आभिणि० दंडओ माणकसाइभंगो | णवरि कोधसंज० सिया तंतु० दुभागणं० । माणसंज० सिया० तं० तु ० सादिरेय दिवडभागणं ० ० संखेजदिभाग वा । माया लोभाणं णि० ० णि० तंतु० संखेजदिभागहीणं चा संखेजगुणहीणं वा । एवं चदुणा० पंचंत० । ४५०. विद्दाणिद्दाए दंडओ माणकसाइभंगो | णवरि कोधसंज० णि० बं० दुभागणं बं० । माणसंज० णि० सादिरेय दिवडभागणं० । मायसंज० -लोभसंज० णि० ब० संखेजगुणही ० । एवं दोदंसणा०-मिच्छ० - अणंताणु०४ । अप्रशस्तविहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग दुःखर, अनादेय, अयशःकीर्ति और निर्माण का कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यात भागहीन अनुकृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । देवगति, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और तीर्थङ्करप्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है | नीचगोत्रकी मुख्यता से सन्निकर्ष ओघ के समान है । ४४९. मायाकषायवाले जीवोंमें आभिनिबोधिकदण्डकका भङ्ग मानकषायवाले जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि यहाँ आभिनिबोधिक ज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव क्रोधसंज्वलनका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इसका नियमसे दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । मानसंज्वलनका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इसका नियमसे साधिक डेढ़ भागहीन या संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । मायासंज्वलन और लोभ संज्वलनका नियम से बन्ध करता है | किन्तु वह इनका उलष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो वह इनका नियमसे संख्यात भागहीन या संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । इसी प्रकार चार ज्ञानावरण और पाँच अन्तरायकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ४५०. निद्रानिद्रादण्डकका भङ्ग मानकषायवाले जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इसका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव क्रोधसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जां इसका नियमसे दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । मानसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे साधिक डेढ़ भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । मायासंज्वलन और लोभसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । इसी प्रकार दो दर्शनावरण, मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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